Thursday, February 25, 2010

युद्ध-जीवन

अविरल बहते युग में
काल चक्र से परे
शास्त्र आलाप में
मैंनेभाव विहीन गरल को पीकर देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
कल ही आँगन में गूंजी थी एक किलकारी
बतिया थी बड़ी भोलीभली 
इस लोक से परे परीलोक में जीता था
माँ के आँचल को वो अटूट ढाल समझता
उस मासूम बालक को मैंने
जंग में लोहा लेते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
परिपक्व होते बाजुओ को
दादी के हाथो की लाठी
पिता की बाज़ार की चिंता
बहन के खेलो का साथी 
घर की हर छोटी बड़ी बात में
उसे सयाना होते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
पिता के कारोबारी साथ
माँ की आँखों के ख्वाब
बहन की मासूम लालसा
दादी नानी की हर आशा
इन्ही इच्छाओ  को पुरा करने में
उसे ख़ुद के सपनो से दूर होते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
मस्तिष्क में सवाल जटिल
मन में अनदेखा आक्रोश 
आंखों में अनजानी मंजिल
चेहरे पर अनजाना क्रोध , 
उसे मैंने ख़ुद में ही उलझे देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
बिखरे सपनो को चुनते हुए
उनसे आशियाना बुनते हुए
खोये हुए किसी सपने में
उसके लक्ष्य हीन कदमो को
अब एक दिशा में चलते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
हर सवाल को जवाब बनते
हर सपने को यथार्थ में पलते
अनजानी राहो सी आते
उस सुरमई आलाप पर
बावले मन को मचलते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
हर प्रेमग्रंथ के सार को
प्रेमावीना के हर तार को
मयूर के सावन नाच को
बसंत में भंवर व्यवहार को
एक ही दीदार में समझते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
प्रेयसी दर्शन को व्याकुल मन
जैसे बिन वर्षा सावन
अधीरता छुपाने की खातिर
मन बहलाने की चाह में
उसे कलियों से बतियाते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
प्रेम गीत की  मधुर ताल में,
प्रेम सरोते के साहिल पर
प्रेमी युगल हंस जोड़े का
प्रेम रस से अभिषेक होते देख
ऋतुराज को मदमस्त होते देखा हैं
 मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
नव चिंतन की भाषा से
जग के चिंतन को त्याग कर
प्रेम साहिल पर प्रेम वट की छाँव में
वासंती कलम से प्रेम रंग में
प्रेम काव्य को गढ़ते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
जीवन की क्रीडा स्थली पर
समय बड़ा बलवान हैं
स्थिर रहता कुछ भी नही
अविरल गति ही ईश्वरीय प्रावधान हैं
उसी गति में उसे बहते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
खो वासंती बांसुरी के स्वर
निर्मम युद्ध के शंखनाद में
था हर वीर लड़ने को तत्पर
वीरगति पाने की आस में
उन्ही वीरो की धमनियों में
खौलते लावे को बहते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
देश प्रेम का अप्रस्फुटित बीज
उस निश्चल ह्रदय में था दबा
युवा ह्रदय के उस बीज को 
मातृभूमि की व्यथित पुकार
शत्रु की लोभी ललकार सुन,
वट वृक्ष में पनपते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
यौवन के भरपूर जोश में
रंजिश के अंध आक्रोश में
कुछ कर गुजरने की चाह लिए,
एक काँटों भरी राह पर चल
उसे सेनानी बनते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
माँ  का  दुलारा  लाल  जिसे
छूने से पहेले पवन भी 
माँ के आँचल से पूछा करती थी 
उसी लाल कि काया को पसीने, 
और मिट्टी  से  लथपथ  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है 
मेहनत  से  दूर जीवन जिसका 
बिता  बड़े राजसी  ठाठ  से
उसे  हरदिन श्रम की थकान से 
ज़मीन  पर  गहरी  नींद  में 
पसीने  कि  कीमत  समझते  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है 
समय  बहुत  ही  तेज  है 
परिवर्तन  भी  देते  यही  संकेत  है 
समय  कि  इसी  धरा  के  संग 
उसकी  फूल  सी  काया  को  पत्थर 
ह्रदय   को  चट्टान  में  बदलते  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है|
माटी का चन्दन कर,
सीने में वायु भर कर,
मुश्किल कर्म को साधने ,
असंभव को संभव में बदलने,
की खातिर प्रकृति से लड़ते देखा है 
मैंने युद्ध को जीते देखा है|
शत्रु संहार की शक्ति,
शहादत करने का साहस,
स्वयं में समाहित कर, 
भय को भी भयभीत करने,
उसे खुद अग्नि बदलते देखा है 
मैंने युद्ध को जीते देखा है |

ख़ुशी  और  उत्साह  चरम  पर 
व्याकुल  सबका  अंतर 
आँखों  में  गर्व  और  आंसू   लिए 
उसके  अपनों  को  उसका 
इंतज़ार   करते  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है 
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सुख -दुःख ,धुप-छाँव |
है यह सतत बदलाव
भोग  चूका इतिहास सभी
शांति और जंग के प्रभाव
मगर आज फिर सरहद पर
चिंगारी को उठते  देखा है
मैंने युद्ध को जीते देखा है|
मातृभूमि  की सुरक्षा को
वीरगति की अभिलाषा को
आँखों में प्रचंड क्रोधाग्नि
माथे पर बाँधे कफ़न
वीर जवानो को मैंने
सरहद की ओर बढते देखा है
मैंने युद्ध को जीते देखा है|
जंग सिर्फ रक्त चाहती है 
धारा अपने लाल खोती है
जीत-हार की परिभाषा
बस किताबो में सयानी है |
मैंने नरसंहार में सहस्त्र
घावों को लगते देखा है
मैंने युद्ध को जीते देखा है|

Monday, February 22, 2010

नयी डगर

कर्तव्यपथ पर चलते हुए,
खो गया कहीं मेरा अंतर,
दूजो कि ज़िन्दगी जीते हुए,
अब खुद को पहचानना हुआ असंभव ,
बढती वेदना है,बढ रहे है सवाल ,
मुस्कराहट भी अंतर्मन तक पहुच न पाती है,
सुन्दर तितलियाँ भी ना मन को लुभाती है 
सुरमयी आलाप भी बरबस शोर लगता है, 
सुन्दर कुसुमो से लदा उपवन है, 
वीरान मरुतल ही लगता है ,
बेगानी सी यह पवन है, 
बेगाना है यह समाँ,


बढती यह बैचेनी ,
बढता यह असमंज़स है,
खुद ही खुद में उलझा हूँ,
और ज़माने को सिख देता हूँ,
जीवन गुर बतलाता हूँ,


सब समझ ज़माने कि होते हुए भी
नासमझ ही खुद को पाता हूँ,
सत्य कि परिभाषा से अवगत हूँ,
पर जाने क्या सत्य क्या रचना है ,
क्या माया क्या सपना है ,

क्यूँ कोई पराया ,
जाने क्यूँ कोई अपना है ,
क्यूँ है यह रिश्ते ,
क्यूँ बंधीशो से जग बंधा है ,
समझ ना मैं पाता हूँ
चहुँ ओर के अन्धकार को,
समझ कैसे सकता हूँ,
जब अँधियारा भीतर भी भरा है, 
मुझे वह अंधकार पढना है ,
खुद ही खुद से लड़ना है ,
हर उलझन को सुलझाना है, 
अब अंतर -तिमिर मिटा ,
दशों दिशा में आत्म -अलोक फैलाना है,


किसी नयी डगर मुझे जाना है,
किसी नयी डगर मुझे जाना है ......

Saturday, February 20, 2010

जंग या जीवन

जंग   है किसे  प्यारी
पर सत्य है यह भी अडिग
कि है  जंग मानुष कि जिंदगी सारी
जीवन  की  राहों   में
जाने-अनजाने  ही सही
कई  जंग  हम लड़  जाते  है
कुछ  जीत  कर  शोक मनाते
कुछ  हारकर  भी मुस्कुराते  है
जीत मानव का ध्येय नहीं
जंग मानव का आभूषण है
जीत में वो रस नहीं
जो जंगी संघर्ष में है
मज़ा अंत में नहीं
आनंद तो नव आरंभ में है
सफ़र में जोश है जूनून है
मंजिल पर बस शांत सन्नाटा है
मौत मंजिल है, जीवन है सफ़र
याद सफ़र को करते है
दाद सफ़र को मिलती है
मौत अंत है सफ़र का
गाथाएँ लक्ष्य प्राप्ति पर
सुख-रसपान की सब बेमानी है
जियो सफ़र के हर पल को,
मंजिल से क्यों डरना,
जहाँ साथ छोड़ दे नश्वर,
उसी को मंजिल समझना,
बंधन जीत का त्याग,
नभ में विचरण का विचार करो,
अपना चपल चंचल मनोरथ,
मुश्कुराहत के साथ पूर्ण करो,
हर डग पर छेडो राग ऐसा,
की धरा में वो घुल जाये,
बने नश्वर इश्वर डगर पर,
और इश्वर नतमस्तक हो जाये|............

Monday, February 8, 2010

किशोर के दिल का हाल

बसंत  कई  बीत  गए
हम  तो  बिना  अपने  मीत रहे
खुदा  ने  सबका साथी   बनाया  है
पर  जाने  कहाँ   छुपाया  है
अब  तो  दुआ  है  यही
जल्दी  किसी  से  दिल  कि  प्रीत  बने
हमारा  अफसाना  भी  अब  प्रेमगीत  बने

सावन में मयूर के नाच से
कोयल कि मधुर कुक से 
भंवरे के कली कोतुहल से  
हिरन जोड़े स्वछंद विचरण से 
प्रेम भरे इस मौसम  में
कैसे अब शांत चित्त रहे
दुआ है यही की
हमारा अफसाना भी अब प्रेमगीत बने

पूर्णिमा के पूरण चंद की शीतल किरणे
अन्धयारी अमावस में तारों की अदभूत चमक
प्रथम प्रहर की वो शीतल पवन
ओस का वो तरुदल चुम्बन
देख यह नींद से अद्खुली आँखे
मनमीत की ही राह तके
दुआ है अब यही
हमारा  अफसाना भी अब प्रेमगीत बने

तन्हाई चुभती नहीं,
सच कहे तो तनहा है भी नहीं ,
यार दोस्तों का दामन थामे,
ज़िन्दगी सिर्फ कट ही रही
बिन साथी के दिख ना  कोई मंजिल रही
 अब साथ हम-दम का हो
और कोई ज़ीने की जिद मिले
दुआ है बस यही
हमारा अफसाना भी अब प्रेमगीत बने