Thursday, March 31, 2011

बचपन

तारो के पार एक
जहान  बसता है,
बचपन जिसमे अपने
सपने बुनता है,
उन बचपन की यादों को
लफ्जों में लिखता हूँ,
आज फिर भोलेपन की
पराकाष्ठा को छूना चाहता  हूँ|
प्यारी परी कोई आएगी
 मिठाई ,खिलौना,मखमली बिछोना,
हर इच्छा पूरी हो जायेगी,
शरारत ना कोई करना ,
वर्ना खफा हो जायेगी ,
 फिर परी को जहन में ला 
चैन की नींद सोना चाहता हूँ 
आज फिर भोलेपन की
पराकाष्ठा को छूना चाहता  हूँ|
वो अंधियारे कमरे का बाबा ,
वो नीम के पीछे का भूत,
वो  छप्पर वाली बिल्ली ,
वो बड़ी पहाड़ी वाले डाकू ,
बहुत  ही सताते थे|
उन अनदेखे चेहरों
से फिर डरना चाहता हूँ 
आज फिर भोलेपन की
पराकाष्ठा को छूना चाहता  हूँ|
कहाँ बचपन खो गया 
क्यूँ तनहा छोड़ गया 
क्या फिर अब कभी 
इस कड़वे सच से दूर
जिंदगी मिल पायेगी
फिर बचपन को पाने 
की राह ढूंढता हूँ
भोलेपन की पराकाष्ठा
को छूना चाहता हूँ

Friday, March 18, 2011

कैसे कहूँ


तुझे कैसे कहूँ
तू क्या है मेरे लिए
मेरी आँखों में सच
तू पढ़ पाती नहीं
तेरे सामने यह जुबां
दिल का हाल बयां
कर पाती नहीं
डर है खो ना दूं तुझे
पाने की फितरत में
तभी ख़ामोशी की यह
दिवार मेरे ख्वाबो की
चोट से टूटती नहीं  
है तेरी नज़र में मोहब्बत
जिसे मैं देख पाता हूँ  
पर कहीं वो मेरी
ख्वाहिशो से उपजी
मरीचिका तो नहीं
तू मेरे साथ है
इसका ही सुकून है
तेरा अक्स हर दम
मेरी निगाहों में है
क्या यही कुछ कम है
खबर नहीं मुझको
क्या पाना चाहता हूँ
इज़हार मोहब्बत का कर
मेरी हर राह की
मंजिल है तू
शायद अब मंजिल
पाना चाहता हूँ
पर तुझे कैसे कहूँ 
तू क्या है मेरे लिए

Sunday, March 13, 2011

एक तोला सो़ना

कहा माँ ने एक दिन  
थोडा सोना मोल लाना है
चाहे रुखी खा ले पर 
बेटी का ब्याह रचाना है
विदा करना उसे उसके घर को
मुझे अपना क़र्ज़ चुकाना है
है  दूल्हा अभी नजरो में
सम्मानित उसका घराना है
बस एक तोला सोना मोल लाना है|

सद्गुणों से समृद्ध है लाडली
चरित्र पावन गंगा सा है 
खुशियाँ  उसके कदमो की 
लगता  हम जोली है
क्रोध ,इर्ष्या ,लालच इनको
तो उसने ना पहचाना है
खुद में वह एक गुण-आभूषण 
फिर भी जाने क्यूँ जरूरी
 वो एक तोला सोना है

काश मैं कटपुतली होता


काश मैं भी इंसान नहीं
खूबसूरत कटपुतली होता
किसी आलिशान महल की
रत्न जडित ताको में
किसी मोम के पुतले की
नज़र की ताक में बैठा होता
मेरे रूप की तारीफ सुन 
अपनी अभिमानी अग्नि को
और प्रचंड कर रहा होता
काश मैं भी इंसान नहीं
खूबसूरत कटपुतली होता
मेरे अंतर की कालिमा की
परवाह किसी को ना होती
चाहे अंतर से मैं खोखला
या कोई पत्थर होता
मेरे चेहरे की रोनक पर
हर कोई दिल फेक होता
क्योकि सच मैं में
उसी की परछाई होता
काश मैं इंसान नहीं
खूबसूरत कटपुतली होता
इंसानी ज़ज्बातो की ना 
कोई कद्र होती 
जग की रीतो पर
यूँ ना मेरा दिल रोता
आँसू से चेहरा भिगो कर
फकीर का ना मुझे 
तख़्त मिलता 
काश मैं इंसान नहीं 
खूबसूरत कटपुतली होता 
कीमत इंसान की दो आने 
कटपुतली की अनमोल है 
जान से मोल कम होता है 
बेजान की क्यूँ
हर कोई कद्र करता है
इसका रहस्य जान मैं लेता 
काश मैं इंसान नहीं 
खूबसूरत कटपुतली होता

Friday, March 11, 2011

जाने क्यूँ जिंदगी अलग लग रही है


हर झोंका पवन का मेरे रोम रोम में उल्लास भर रहा
सूरज की हर किरण मुझे जूनून का तोहफा दे रही
शोर में भी एक सरगम मुझे मदमस्त कर रही
हर बीतता पल मुझे अपने वजूद का सुबूत दे रहा
वही आशियाँ, वही आँगन है वही ज़माना भी 
पर जाने क्यूँ आज यह जिंदगी अलग लग रही है
हर बात में एक कशिश हर मोड पर सम्मोहन
अभी ना कोई मंजिल, ना ठिकाना मिला
फिर भी कदमो को ठहरने का बहाना मिला,
लगता है कोई खुशी का सैलाब सा आया है
अंतर में भावो को थाम ना पा रहा हूँ
कलम से भी उनको ना बयां कर पा रहा हूँ
खो रहे अल्फाज़ यहाँ, पर जुबान मस्ती के गीत गा रही है
वही आशियाँ, वही आँगन है वही ज़माना भी 
पर जाने क्यूँ जिंदगी अलग सी लग रही है
हम तो अब भी है वही मदमस्त पंछी
जिनकी उड़ान कुदरत भी ना रोक पाई है
क्या अलग है कल और आज में
क्या जिंदगी सच में कोई तोहफा लायी है
सवालों के भँवर में फँसा हूँ फिर भी
क्यूँ कोई शिकन ना माथे पर आ रही है
वही आशियाँ, वही आँगन है वही ज़माना भी 
पर जाने क्यूँ जिंदगी अलग सी लग रही है
एक दीदार का जब यह असर है
जाने रूबरू होने पर क्या क़यामत होगी
कभी लगता है खुशियों से मतवाला हो जाऊंगा
कभी लगता है मैं भी भीड़ में खो जाऊंगा
मुझे भीड़ से दूर रहने की ख्वाहिश है
पर जिंदगी के जानने की जिज्ञासा
जाने क्यूँ कदमो को उस और ले जा रही है
वही आशियाँ, वही आँगन है वही ज़माना भी
पर जाने क्यूँ जिंदगी अलग सी लग रही है
है जिंदगी वही, वही मैं मनमौजी फिर क्यूँ
बंधिशो में बंधने की बात मन को गुदगुदा रही है
वही आशियाँ, वही आँगन है वही ज़माना भी
पर जाने क्यूँ जिंदगी अलग सी लग रही है