Tuesday, September 17, 2013

मन में मंथन

बैठा हूँ सागर के साहिल पर,
लहरे कदमो को छू रही है,
मादकता ले चल रही पवन,
चांदनी से रोशन अम्बर है,
खो जाये खुदरत के सौन्दर्य में
इतना मनमोहक वातावरण है,
मगर अशांत कुछ बातों मन,
खुद ही खुद में उलझा है,
सवाल जवाब हो रहे अंतर में,
चल रहा अजब सा मंथन ये,
अपने कर्तव्य को समझने की
एक नाकाम सी कोशिश कर रहा हूँ,
साहिल पर इस सागर के |
एक और गिरती मानवता
एक और सामाजिक बंधिश है,
किस राह पर चलना है,
किस मंजिल का करना है वरन,
गलत कोई राह है नहीं,
मगर फिर भी क्यूँ ये चिंतन,
सागर के अंतर से अधिक,
शायद गहरा है मेरा अंतर,
एक सैलाब का इंतज़ार करता,
जो एक राह प्रस्शत करे ,
इसी सोच में बैठा हूँ मैं ,
साहिल पर इस सागर के ||
मनोरम रूप देख सागर का,
तूफान की कल्पना कैसे करे,
देख तूफान को सागर में,
यह मनोरम दृश्य अकल्पनीय है,
दोनों रूपों में कितना अंतर,
बस यही सोच रहा हूँ,
क्या मुझमे भी क्षमता है,
विनाशक हो भी मंनोहक होने की,
बना आशियाँ उसे वीरान करने की,
दोनों रहो पर क्या चल सकता हूँ
पूछ रहा बस यही सवाल मैं,
बैठ साहिल पर इस सागर के|
कहते कृष्ण  करो कर्म,
फल पर ना तुम गौर करो,
मगर कर्तव्य ही बंधन हो,
कैसे कर्म फल का ना,
 निर्बल मन में चिंतन हो,
मुंद आँखे क्या पथ रचुँ,
पर है भाव वही संशय के,
मेरे धर्म की परिभाषा क्या है,
क्या तात्पर्य है मेरे जीवन का,
मेरी मन का मोती कहाँ  है,
यही सोच हरदम डूबता हूँ,
मन के अपर सागर में,
बैठा हूँ शांत साहिल पर,
मन के सागर में मंथन लिए| 

Sunday, September 15, 2013

आखिर कौनसा गुनाह

किसके गुनाहों की सजा,
मेरा देश भुगत रहा है,
वो धरा जिसे प्रकृति ने
हर सम्पदा प्रदान की,
जहाँ सभ्यता के अंकुर
वट-वृक्ष में बदले,
क्यूँ आज वही देश
ना सभ्य है ना समृद्द,
क्यूँ धुंधला भविष्य और
लहू-लज्जा से सना अतीत,
क्यूँ नीर बहाती है आज
बहु बेटियाँ हर घर में,
क्यूँ सांझ भी अब यहाँ
सवेरे का सपना बनी है,
क्यूँ जिसे दिनकर बन
राहों को सरल करना था,
आज खुद गुमराह हुआ है
कोई बतला दे मुझे बस इतना
किसके गुनाहों की सजा,
मेरा देश भुगत रहा है|
जवाब कई उभरे सवालो पर,
कहीं राजनीती के स्वार्थ,
कहीं व्यापारी का लालच,
कहीं पिछडो के आलस्य,
कहीं संकीर्ण धर्म पर आरोप,
किसी ने जात-पंथ,लिंग भेद ,
किसी के क्षेत्रवाद पर कटाक्ष,
किसी ने विदेशियों कुटिलता,
किसी ने भाग्य को दोषी कहा|
मगर सवाल अब भी वही है,
जवाब अब भी कहीं नहीं है
क्या कमी आखिर राह गयी,
कौनसी भावना खत्म हुई,
क्यूँ राजनीती कलंकित,
क्यूँ स्वार्थसिद्धि प्रबल हुई,
शायद दोषी है वो शिक्षक,
जो चरित्र अपने विद्यार्थी में
देश प्रेम के ना सींच सका,
मौलिकता का पतन शायद,
विद्याध्ययन से ही शुरू हुआ,
जागो विश्व गुरु के गुरु-वर,
देश की पुकार सुनो,
ज्ञान के दीपो से पुनः रोशन
मेरे इस पवन वतन को करो|