Friday, January 8, 2016

इज़हार

हमने तो तोहफे में दिल दिया,
जाने वे उसे क्या समझ बैठे ,
दूसरे नजरानो की तरह ही,
रख किसी कोने में घर के,
दिल की कद्र ना कर सके,
आज तन्हाई में दिल शायद,
उन यादों में मुश्कुराहट खोजता है,
जब लब खामोश थे,
इकरार और इज़हार का द्वन्द्ध था
और उनके दीदार का सहारा था,
आज ना कोई चाहत, नहीं कोई मंजिल,
खुशी है की आशिक तो बने मगर,
भले रूप इश्क का हुआ ऐसा हांसिल|

जीवन की कशमकश

सरल है बहुत कहना मगर,
मुमकिन नहीं जीना यहाँ,
हर डगर एक सवाल है,
खो गए जवाब जाने कहाँ,
मुश्किलों से विचलित नहीं,
मुश्किलों के लिए विचलित है,
काँटों से भय अब नहीं है,
डर फूलो के कांटे बनने का है,
खोज रहा हूँ में वो बगिया,
जहाँ फूल फिर महक सके,
हर सांस पहेली ना होकर,
साकार स्वप्न की सीडी बने,
ख्वाहिश अब नहीं महलों की,
चाह है बस खोने से पहले,
कुछ ज़वाब मिल सके|

कलम का पतन

चीख रही है आज परिपाठी,
देख पतन कलम योद्धाओ का,
जिनका धर्म था सत्य संग्राम,
वे मिथ्या भाषण रच रहे है,
जहाँ व्यंग बाणों की ज़रूरत,
वहाँ जय गान सुनाई दे रहे,
दर्द जन-जन का देख भी,
बरबस ख़ामोशी का आलम है,
शर्मशार लेखकों का कुनबा हुआ,
हताहत आज कलम है,
देख कलम योद्धा का यह पतन,
वसुधा भी आत्मरक्षा के चिंतन में है|

विकसित संसार

कभी सोचता हूँ क्या पाया है,
ज़माने ने विकास के नाम पर,
जो जीवन रत्न थे सब खो गए,
बर्बर मानव से अब पशु हो गए,
पाषण को जीवित से अधिक महत,
यत्न था जीवन सरल और सुखद हो,
मगर जीवन को ही हम भूल गए,
जो साधन था वो लक्ष्य हुआ,
और लक्ष्य को इंधन समझ रहे,
जल रही है चिता मानव की ,
अब तो चिंता की वेदी पर,
जाने खोकर सब कुछ अपना,
वीराने मेलो में जाने क्या खोज रहे,
लगता तो बस है यही की अब,
विकास के नाम पर विनाश कर रहे|