Saturday, January 14, 2012

उबाल

हो गयी ज्वाला शांत भले,
लहू मगर अब भी लाल है,
बहता रगों में यह लावा ,
उतना ही विकराल है|
दहशत पर दया का दान
कब तक दे पाएंगे,
गुनाह को गलती समझ,
कब तक भुलायेंगे,
अभी दिखी है थोड़ी हलचल,
अब तमाशा शुरू होने को है|
एक हाथ धनुष,दूजे में गीता,
बुद्ध कब तक रोक पाएंगे,
सब्र का इम्तिहान लेने वाले,
सिंह को  मेमना समझते है ,
समाधी में लीन शिव को,
लाचार समझने वाले ,
तीसरे नेत्र के अंगार भूले है,
महज साँसों की तेजी से
आई तख़्त में दरारे है,
खनकने दो  कलुषित कनक,
अब तमाशा शुरू होने को है| |
खुद ही अनजान है हम,
अपने बाहुबल से अभी,
तभी नैनो में नीर है,
शुरू गुरुकुल हुआ अब कराने,
शक्ति की सार्थकता का बोध,
रण विजय से बढ़कर लक्ष्य,
है नवनिर्माण का  ज्ञान ,
वर्ना जीतने के लिए जंग ,
तो है  काफी एक हुंकार,
लिखने को नया इतहास
तत्पर है समय की कलम,
बस असल प्रहार होने को है|

2 comments:

  1. बहुत खूब , शुभकामनाएं.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधार कर अपना स्नेहाशीष प्रदान करें

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  2. बहुत सुंदर रचना प्रभावशाली प्रस्तुति

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