Sunday, June 27, 2010

दर्द की नीव

दर्द की आधार शिला पर,
आंसुओ की भीगी माटी से,
जोड़ गम के पत्थरों को,
सुखों का मंदिर बनता है,
जीवन में आसां कुछ नहीं,
वो सबके साथ खेलता है|
ले लोभ लालसा की ललक,
प्राय: पतित प्रोयोजन पर,
  वो मंदिर तोड़ दिया जाता है,
और नव निर्माण में फिर से,
वही दर्द,वही गम ज़िन्दगी में 
अवतरित हो जाता है,

लांछन किसी पर लगा,
दोष मढ़ किसी पर ,
खुद को दोषमुक्त समझ,
दुनियां से हर कोई खफा होता है ,
दूध के धुले है सब,
बुरा होने को बस खुदा बच जाता है|
कोई दुष्ट,कोई मतलबी,
कोई बुरा बन जाता है,
अपने दुखो की गठरी,
किसी और को दे ,
बढती राहों में तनहा
सुख भोगना चाहता है,
आसाँ राहों की खातिर सच्चा कर्तव्य,
ताक़ पर रख दिया जाता है|
कोई नहीं समझता की सुखो का मंदिर
दर्द की नीव पर ही बनता है |

6 comments:

  1. बेहतरीन रचना.

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  2. You are really good. and you deserve much more credit as a poet then you do. Some lines were really deep. however, I find it a little odd to see urdu words in between in an otherwise very sanskrit-nishth hindi. To me it creates a bump in the ride.

    keep up the good work! :)

    Rahul meena

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  3. कोई नहीं समझता की सुखो का मंदिर
    दर्द की नीव पर ही बनता है |
    गहरे भाव लिये सुन्दर रचना बधाई।

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  4. शुक्रियां मेरे कृति को सराहने के लिए में हर दम आप लोगो की आशानुरूप अच्छी काव्य रचना कर सकूँ ऐसा आशीष रहे|

    -----अखिलेश रावल

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  5. राहुल अभी मैंने तुम्हारी शिकायत को ध्यान में रखते हुए | कम से कम उर्दू इस्तेमाल कर मेरी नयी रचना पेश की है| आशा है तुम्हे पसंद आएगी|

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