Wednesday, January 11, 2012

साहिल

जब हम बीच दरिया में थे,
तो किनारों की ख्वाहिश थी,
थपेड़े खाती कश्ती से रंजिश थी,
देख नीर अपार नैनो में नीर था,
पर इरादा कुछ और था तक़दीर का,
आज धरा पर है कदम मेरे ,
हर ओर हरियाली की चादर ओढ़े,
खुशियों के मृदंग बज रहे है ,
फूलो से आशियाँ सज रहे है,
मगर तन्हाई का आलम है,
सब कुछ है फिर भी,
कुछ कम लगता है,
लहरों की याद सताती है,
कश्ती फिर मुझे बुलाती है,
नहीं अंत मेरी डगर का ,
लगता यह साहिल है,
बाकी है सांस मुझमे ,
दरिया में जाने का साहस है,
है बहुत साहिल जहान  में,
अभी तो बस आगाज़ है|

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