Sunday, August 2, 2009

ज़िन्दगी का सच

आशाओं के पर लेकर उड़ा था,
दुनिया की ठगी मगर समझ ना सका,
क़तर दिए पर दुनिया ने ,
आंधी में पड़े फूस के ढेर की तरह बिखर चुका हूँ,
और अब फिर ख़ुद की खोज पर चल पड़ा हूँ
जिंदगी कई रूप दिखाती है ,
कभी हँसना तो कभी रोना सीखाती है ,
पर कभी ऐसे मझधार पर ला खड़ा करती है ,
जहाँ हँसी और क्रंदन के आलावा,
कोई और ही भावः की ज़रूरत होतीहै ,
इस भावः को समझ ना पा रहा हूँ ,
दुनिया के मेले में ख़ुद को खोजे जा रहा हूँ