Wednesday, January 18, 2012

प्याऊ वाली माई

आज वो चेहरा ज़हन में आ गया,
मेरे मुश्कुराते चेहरे से हंसी ले गया,
मन मुझसे आज पूछता है,
क्यूँ तू इतना इठलाता है,
अपनी कामयाबी के ऊपर,
क्या चूका पाया तू अब तक,
उस एक ग्लास पानी की कीमत,
क्या है आज तुझमे वो साहस,
पूरी कर सके  उसकी ज़रूरत,
उस याद के आते ही अब,
खुशियों के संसार में घायल खड़ा हूँ,
तब भी लाचार था अब भी लाचार खड़ा हूँ|

आप मेरी इस कविता का मर्म तभी समझ पाएंगे जब मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाऊंगा| असल में यह कोई कहानी नहीं है| मेरे बचपन की एक याद है| गर्मीयों के दिन थे| चंद दिनों में गर्मी की छुटियाँ होने वाली थी| मेरे स्कूल के बहार एक चबूतरे पर एक बूढी माई अपने 3-4 मटको में पानी भरकर बैठती थी| कभी पुछा तो नहीं पर उनकी उम्र कम से कम 80 बरस तो ज़रूर रही होगी| हम बच्चो की छुट्टी होने पर वो हमे पानी पिलाया करती थी| हम बच्चे भी उस ठन्डे पानी का मज़ा नहीं छोड़ सकते थे| कभी कभी हम बच्चे उन्हें 1-2 रुपये भी दे दिया करते थे , चूँकि अकाल के समय उस गर्मी में पानी की कीमत सच में होती है और बालमन भी यह समझता है|
एक दिन ऐसे ही मेरी अधिक बोलने की आदत के कारण मैंने उनसे पुछा -" काकी आप रोज पानी लेकर क्यूँ आती हो " तब उनका जवाब था -"बेटा मेरे खाने-पीने के लिए धान, दाल तो मेरे भाई के घर से आ जाता है, मगर मेरा तेरी उम्र का एक पोता है और वो मेरे घर इसीलिए नहीं आता क्यूंकि मैं उसे दूध में बोर्नवीटा नहीं दे सकती| तो मैं तुम्हारे दिए पैसो से बोर्नवीटा खरीदना चाहती हूँ"|
असल में बात यह थी की उस बूढी औरत का बेटा अच्छी नोकरी करता था| उस सुपुत्र को अपनी माँ से और उसकी गरीबी से नफरत हो गयी थी और उसने उन्हें त्याग दिया था| और उसके पोते को इस तरह बहलाया जाता था की दादी के घर पर बोर्नवीटा नहीं मिलेगा| वो औरत बच्चो के चेहरे पर खुशी देखने की ख्वाहिश में अपने पोते के स्कूल के सामने भरी दोपहरी में लोगो को पानी पिलाती थी| असल बात मुझे उस बूढी माई की मौत के वक्त पता चली,चूँकि इत्तेफाक से उनका पोता हमारी चंडाल मंडली (मोहल्ले के बच्चो का समूह) का सदस्य था|


खुदगर्जी से भरे इस ज़माने में,
अगर किसी मोड पर उन लाचार,
हाथो को संबल देना चाहता हूँ ,
ज़माना आतंकियों को कोसता है,
मैं उस ज़माने से प्रश्न करता  हूँ,
तुम्हारे कानून में है आतंकी को,
सजा बहुत ही बड़ी बड़ी ,
क्योंकि ठग लिया लाखो में से,
धरा के एक लाल ने उसको,
कौन है बड़ा मुजरिम बतलाओ,
चढाओ फांसी आतंकी को,
ताकि अगले जनम वो दगा ना करे,
मगर सजा कुपुतो को ऐसी हो,
के फिर आ किसी की कोख में,
कोख को कलंकित ना करे
सार्थक जीवन मेरा होगा तभी
जब  कुछ ऐसा कर सकू
की कोई माँ कुपुत ना जने| 

Tuesday, January 17, 2012

बड़ी मुश्किल से नींद आती है


ख्वाबो की दुनिया में रहने दो,
कुछ पल गमो से दूर ले जाती है,
सच का  भयावह चेहरे को
भूलने की महज एक यही
राह मुझको नज़र आती है,
कुदरत कितनी खूबसूरत है,
इसका अहसास मुझको कराती है,
मुझको तुम जगाना नहीं
बड़ी मुश्किल से नींद आती है|
यहाँ इंसान की कीमत है,
दिल के घावों का मरहम भी है,
यहाँ शहंशाह इंसानियत है,
किसी के मन में हैवान नहीं है, 
दर्द सबका एक सा है यहाँ,
अनजान भी गले मिलते है,
किसी की खुशी में हो शरीक,
यहाँ सच में खुशी मनाई जाती है
मुझको तुम जगाना नहीं 
बड़ी मुश्किल से नींद आती है|
आशियाँ सबका यहाँ मंदिर है,
शक, ईर्ष्या, प्रतिशोध,क्रोध
इनका कोई ज़िक्र ही नहीं ,
इश्वर हर किसी में मौजूद यहाँ,
किसी मूरत की जरूरत नहीं,
ग्रंथो के सार की है समझ,
मगर ग्रन्थ कोई है नहीं ,
बिन धर्म की यह दुनिया,
एक नया धर्म सिखलाती है,
मुझको तुम जगाना नहीं
बड़ी मुश्किल से नींद आती है|
खुले जो नैन फिर वही ,
धमाके,शोर,झूठ का जहान,
फिर रख कदम शवो पर,
आगे बढ़ने का प्रावधान,
कातिलों,चोरों,डाकुओ का,
 होता है जहां  सम्मान,
देख चरित्र-पतन पुत्रो का  
वसुधा खून के आंसू रोती है,
मुझको तुम जगाना नहीं,
बड़ी मुश्किल से नींद आती है|

Sunday, January 15, 2012

समझो सपनो का सच


छोड़ सपनो की दुनिया,
हकीकत में आने का दर्द,
सबको है खबर मगर,
कोई ज़िक्र करता नहीं,
मगर उस दुनिया की छाया
यहाँ लाने की सबको चाहत है,
नहीं कुछ भी असम्भव,
बस एक बार पाने का,
यत्न करने की देरी है|
है यही इस दुनिया खूबी,
हर कोई व्यस्त है अपनी,
जिंदगी की खोज में,
और बेखबर इससे की ,
आखिर खोजता क्या है,
हर राह को देख अब,
यूँ आशा का त्याग नहीं 
बस कर बंद नैन खुद से,
सवाल करने की देरी है|
मंजिल और रास्ता है वही,
जो सपना बनकर आता है,
हमेशा खुशी दे जाता है,
जिसके जाने का गम सताता है,
हर ज्ञानी अज्ञानी है जो,
सपनो से मुख मोड़ता है,
मंजिल जिंदगी की है यही,
हर राही अपना सा हो,
गम भी खुशी से हो,
हर राज़ का सच है यही,
बस सपने समझने की देरी है |

Saturday, January 14, 2012

उबाल

हो गयी ज्वाला शांत भले,
लहू मगर अब भी लाल है,
बहता रगों में यह लावा ,
उतना ही विकराल है|
दहशत पर दया का दान
कब तक दे पाएंगे,
गुनाह को गलती समझ,
कब तक भुलायेंगे,
अभी दिखी है थोड़ी हलचल,
अब तमाशा शुरू होने को है|
एक हाथ धनुष,दूजे में गीता,
बुद्ध कब तक रोक पाएंगे,
सब्र का इम्तिहान लेने वाले,
सिंह को  मेमना समझते है ,
समाधी में लीन शिव को,
लाचार समझने वाले ,
तीसरे नेत्र के अंगार भूले है,
महज साँसों की तेजी से
आई तख़्त में दरारे है,
खनकने दो  कलुषित कनक,
अब तमाशा शुरू होने को है| |
खुद ही अनजान है हम,
अपने बाहुबल से अभी,
तभी नैनो में नीर है,
शुरू गुरुकुल हुआ अब कराने,
शक्ति की सार्थकता का बोध,
रण विजय से बढ़कर लक्ष्य,
है नवनिर्माण का  ज्ञान ,
वर्ना जीतने के लिए जंग ,
तो है  काफी एक हुंकार,
लिखने को नया इतहास
तत्पर है समय की कलम,
बस असल प्रहार होने को है|

Thursday, January 12, 2012

इन्तेज़ार

आखिरी मुलाकात अब भी याद है,
कर खुद को राज़ी किया फैसला,
इज़हार इश्क का उनसे हम करेंगे,
आज दिल को खुली किताब बना देंगे,
हर ख्वाब हर ख्वाहिश हर अरमान,
हर खता का ज़िक्र कर देंगे|
जाने कितनी शायरी करो बेकार है,
कर नहीं सकती वे उनको ज़रा भी बयां,
मेरे अलफ़ाज़ लडखडा कर टूट जाते है,
महज़ उनका ज़िक्र करने भर में,
जाने और कितनी बातें उनसे कहने को,
मन में लिए उन तक पंहुचा,
सलाम दुआ कर जब कहने को हुआ,
वे बोली अभी आती हूँ कुछ पल ठहरो,
पल गुज़रे,दिन गुज़रे,गुजर गए साल कई,
अब भी इतेजार है इज़हार के पल का,
संग लिए बैठा हूँ तोहफा दिल का,
इनकार और इकरार दोनों ही मंज़ूर है,
मोहब्बत का सफर शुरू करने के लिए,
कोई उन तक मेरा पैगाम पंहुचा दे,
की अब भी नज़रे राहों पर टिकी है,
हर पल हलचल का इतेजार कर रही है|

खुद खुदा भी मुझसे हो चूका है खफा,
लौटा दिए  कितने फरिस्ते उसके ,
लेकर आये  जो मौत का पैगाम,
अब पथराई आँखों में है इतेजार ,
कब अपनी साँसों  को दूँ विराम ,
थका इतेजार से अब भी नहीं 
बस इस जिंदगी पर अब हक नहीं| 

Wednesday, January 11, 2012

साहिल

जब हम बीच दरिया में थे,
तो किनारों की ख्वाहिश थी,
थपेड़े खाती कश्ती से रंजिश थी,
देख नीर अपार नैनो में नीर था,
पर इरादा कुछ और था तक़दीर का,
आज धरा पर है कदम मेरे ,
हर ओर हरियाली की चादर ओढ़े,
खुशियों के मृदंग बज रहे है ,
फूलो से आशियाँ सज रहे है,
मगर तन्हाई का आलम है,
सब कुछ है फिर भी,
कुछ कम लगता है,
लहरों की याद सताती है,
कश्ती फिर मुझे बुलाती है,
नहीं अंत मेरी डगर का ,
लगता यह साहिल है,
बाकी है सांस मुझमे ,
दरिया में जाने का साहस है,
है बहुत साहिल जहान  में,
अभी तो बस आगाज़ है|

Tuesday, January 10, 2012

खता

अश्को की सलामी देकर हम,
उनकी राहों से विदा हो जाते,
फिर ना कोई राह मिला दे,
इस खातिर चलना छोड़ देते,
उनके एक अश्क मोती से कम,
कीमत है इस जान की ,
मांग कर तो देखते एक बार,
मुश्कुराते हुए अर्थी पर लेट जाते
बेशक हमे प्यार जताना आता नहीं,
मगर वे हमारे आसूं ही पढ़ लेते|