Sunday, August 4, 2013

असमंजस

मैं बस यही अब चिंतन करूँ,
क्रंदन करूँ या अभिनन्दन करूँ,
जीत की इस मधुर बेला में,
तम हरण का उत्सव करूँ या,
विधाता की इस निष्ठुर लेखन पर,
भिगो नैन अब मातम करूँ,
लहू से सुसज्ज्ति हो इठलाती,
उस खडग की मैं पूजन करूँ,
या प्रियजन का लहू देख,
क्रोधित हो उसे दफ़न करूँ,
हूँ बस इसी चिंतन मैं की,
कृन्दन करूं या अभिनन्दन करूँ|
सीख समय की सरल है,
विजय वीर का आभूषण है,
मगर कैसे विजय को अब,
इस पल परिभाषित करूँ,
जिनकी रक्षा का प्रण लेकर,
गिरिराज के शीत शिखर पर,
मरु के झुलसाते धरातल पर,
अडिग हो प्रकृति से लोहा लिया,
आज कर वार उन्ही पर,
विजय का वहशी वरन किया,
देख अपने बदलते रूप को,
हूँ बस इसी चिंतन मैं की,
कृन्दन करूँ या अभिनन्दन करूँ|
क्यों मेरे घर की ये पावन,
हवन अग्नि अब ज्वाला बनी,
क्यूँ पर्वो की तैयारियों में,
दिन की उदर अग्नि धधक रही,
चाँद को छु लिया है मगर,
मानवता रसातल चली गयी,
है यह कैसी पवन जो अब,
मानव - मानव में ही भेद कर रही,
बन रहे स्वप्निल समाज की,
उन्नति देख एक आँख इठलाती,
तो देख दुर्गति दूसरी अश्रु है बहाती,
ह्रदय के असमंजस का कैसे हल करूं,
हूँ बस इसी चिंतन मैं की,
कृन्दन करूँ या अभिनन्दन करूँ|