Thursday, September 23, 2010

खुनी मेला लगने को है

खुनी मेलो की तेयारियां हो गयी है,
इंसानियत की कब्र खुद रही है,
रिश्तों चिताये सज गयी है,
बस चिंगारी देने की देरी है |
उत्सव  राम-अल्लाह के दर पर होगा,
स्वर्ग पाने की लालसा में ,
अवतरित ज़मीं पर जहन्नुम  होगा ,
जख्मो के होंगे आभूषण ,
कराह का सुरीला सुर होगा ,
काली रात आ गयी है ,
बस चिंगारी देने की देरी है| 
कांटे अब डगर पर होंगे नहीं,
लाशो के कालीन बिछने को है,
होगी सांझ रंग-बिरंगी यारो,
विधवा की साडी के रंग उतरने को है,
शांत  घर का आंगन होगा ,
किलकारियां अब खोने को है,
अश्रु धार शुरू हो गयी है,
बस चिंगारी देने की देरी है|
रोकने को बढते कदम हमारे,
चाहे जितने हथकंडे अपना ले,
बैरी अब ना जीत पायेगा ,
इस मौत का मोहोत्सव में ,
देशप्रेमी बन हैवान आएगा,
लाल जमीं हो गयी  है ,
बस चिंगारी देने की देरी है|
हे वीर-शूरवीर जाते हुए उत्सव में,
बच्चों की खिलोने,बीवी का सिंदूर,
बाप की लाठी ,माँ की आँखों का नूर,
मोल की खातिर लेते जाना,
गम की बोलियां लगनी है,
दर्द की दुकाने सज गयी है,
बस  चिंगारी देने की देरी है|

Monday, September 20, 2010

गम की रात

कहते है तेरे दर पर खाली
ना झोली किसी की रहती है
दिल से जो मांगे उसकी
पूरी हर फरियाद होती है
क्या कमी दुआ में रह गई
जो ख़त्म नहीं यह गम की रात  होती है
चढ़ाये श्रद्धा कुसुम,पिरोकर व्रतों की माला में,
किया अभिषेक कई बार,अश्को की धारा से ,
की आरती सुबह शाम जीवन ज्योति से ,
 अर्पण किया जो कुछ  था फटी झोली में,
फिर क्यूँ नहीं ख़ुशी से मुलाकात होती है,
क्या कमी दुआ में  रह गई,
जो ख़त्म नहीं यह गम की रात  होती है|
मेरे गमो को तु क्या समझ पायेगा,
बिक तु गया है सौदागरों के हाथ,
अब तेरी दर पर,हो रही बोलियाँ आम,
मुखमंडल से लेकर चरण कमलो तक
हो गयी छवि तेरी सडको पर नीलाम,
कहाँ अब  सच्ची जय-जयकार तेरी है
किस दर पर गुहार करूँ ,
जो ख़त्म नहीं यह गम की रात  होती है|

मुश्कुराता चेहरा एक नहीं,
खुशियों की दावत में ,
समृद्धि  की कोठियों बनी है  ,
इंसानियत की कब्रों पे  ,
देख दिखावे का यह तमाशा
लगती तेरे हस्ती ही झूठी है,
यत्न करे कितने हम, पर शायद
 ये गम की रात ही हमारी ज़िन्दगी है |
http://vichar-akhilesh.blogspot.com/

Saturday, September 11, 2010

शाख और पत्ता

टुटा शाख से पत्ता,
चला अपनी राह बनाने,
खुद की मेहनत से,
खुद को खुदा बनाने,
छोड़ फ़िक्र तरु की,
छोड़ यादें साथियों की,
चला पवन के साथ बतियाने,
टूट शाख से पत्ता,
चला अपनी राह बनाने|
कभी गति पवन ने दी,
कभी साथ मिला जलधारा का,
कभी स्थिरता को पाया,
कभी वेग था विचारों सा,
अपनी गति देख कर,
लगा था वो इठलाने,
टूट शाख से पत्ता ,
चला अपनी राह बनाने|
राहे आसाँ थी नहीं,
प्रकति पर निर्भर गति,
भय हमराही पशुओ से ,
पहुचा दे ना कोई क्षति,
मुश्किल राहों में ठहर,
जाने का डर अब,
था लगा सताने,
टूट शाख से पत्ता,
चला अपनी राह बनाने|
जीवन कितना था बाकि,
कितनी राहे थी बाकि,
बढ़ना था तीव्र गति से,
पर था कहाँ समय साथी,
समय चक्र तेज चलने लगा,
करीब अंत लगा था आने,
टूट शाख से पत्ता ,
चला अपनी राह बनाने|
अंत नियति है सबकी,
सभी को लगाया उसने गले,
माटी से मिल माटी में खो गया,
आज फिर शाख पर ,
देखो एक अंकुर उभर रहा,
बन अंकुर देखो फिर
शाख से जुड़ गया वो,
जो टूट शाख से,
चला था अपनी राह बनाने|

Thursday, September 9, 2010

हुनर जानते है

गमो को मुश्कुराहट में दबा जाते है,
बिन बोले ही हर बात समझ जाते है,
तुम हमें अपना समझो न भले,
हम तो तुमसे आज भी रिश्ता निभाते है,
सुखो में साथी बन ना सके,
गम में संगी बनना जानते है|
दिल से भले ही निकाल दिया,
मगर तार दिलो के टूटे नहीं है
आपके दिल की धड़कन में बेचैनी,
मीलो दूर से भांप जाते है,
देख आपकी आँखों के में  आंसू,
दरिया भर हम भी रो जाते है,
  तनहा राहों में हो हम भले  ,
अनजानी राहों में  साथ निभाना जानते है|
तुम्हारे दर्द को देख रूह कांप जाती है,
देह से विदा लेने को आतुर हो जाती है,
तन में शीतल रक्त बहने लगता है 
धड़कन भी शिथिल हो जाती है
निर्विचार मस्तिष्क होता है,
जिव्हा निस्वाद हो जाती है,
अपना ना सको कोई गम नहीं,
पर तुम्हे पराया बनना ना जानते है|
तुम्हारी एक कसक ही काफी है,
हमे मतवाला करने को,
तुम्हारी एक पुकार ही काफी है,
हमारी राह बदलने को,
तुम्हारी एक ख़ुशी ही काफी है,
हमारी जान दाव लगाने को,
तुम राह के कांटे ना चुनने दो,
तुम्हारी राह में बिछ जाना जानते है|
हम साथ ना हो तो क्या हुआ,
हम तो तुम्हारी खातिर,
मौत से भी जीत जाने का हुनर जानते है|

Wednesday, September 8, 2010

मेरी अर्थी

मेरी अर्थी को कन्धा देने वालों,
मुझे इतना तो बतला दो,
मेरी लाश सच्ची है
या है रूह में सच्चाई,
मेरी ज़िन्दगी से मौत अच्छी है,
जो अपनों को मेरे पास ले आई,
दे रहे है जो मुझको अंतिम विदाई,
बरबस अश्को की सलामी से,
इतना बतला दो क्यों नहीं बहे,
दो बूँद भी मेरी लाचारी पर|


जाने कितनी कसक लिए,
जाने कितनी  शिकायत लिए,
जाने कितने  ख्वाब कितनी ख्वाहिशे लिए,
पुरे जीवन की पूंजी लिए,
ज़िन्दगी के  हर दर्द को लिए,
चली फूलों से सजी अर्थी मेरी,
मेरी अर्थी को फूलों से सजाने वालों,
बस इतना बतला दो क्यूँ ये फूल
नहीं मिले ज़िन्दगी की राहों में |

तन्हाई मेरी संगिनी थी,
थी हर मोड़ पर साथ मेरे,
जब दुःख ने घेरा मुझे,
जब सुख की दस्तक हुई,
जब दर्द असहनीय था
जब मौज से जीवन भरा था,
मेरे पीछे रोने वालों
बस इतना बतला दो
कब तक साथ निभा पाओगे,
यादों में कब तक ला पाओगे|
ज़िन्दगी की बंदिशों से आजाद हो,
बनावटी दुनिया से दूर,
मेरी अर्थी  अब चल पड़ी है,
खुले आसमां में उड़ने को,
माटी  में जा मिलने को,
 फूल की सुगंध बनने को,
नदियों में स्वछन्द तेरने को,
मुझे अपना कहने वालों
बस इतना बतला दो क्यूँ
मौत को तमाशा बनाते हो,
 अर्थी को खून के आंसू रुलाते हो|

Saturday, August 7, 2010

लक्ष्यहीन

हरी चादर ओढ़े मैदान,
सफ़ेद ओदनी ओढ़े पर्वत महान,
जल से कल-कल करती नदियाँ,
कहीं गर्म पानी के सरोते,
कहीं रंग बिरंगी सुन्दर कलियाँ,
कलियों पर कोतुहल करते भंवर,
शांत रूप  गाय , उद्दंड वानर,
शक्ति रूप अश्व,कर्मशील गदर्भ,
असीमित सोन्दर्य से सजाया,
बयां ना हो सके ऐसा रूप,
लिखते लिखते लेखनी लड़खड़ाने लगे,
कर इतनी अद्वितीय रचना ,
हे रचनाकार तुम कहाँ खो गये,
हे संरक्षक कहाँ मदमस्त  तुम हो गए |
सन्देश कोई मेरा देदे तुम्हे,
देखो दुर्दशा अपनी रचना की,
हो गई बंझड़ सारी धरा,
हुआ ठूंठ पंछियों का आसरा,
 जीवंत वादियाँ वीरान हो गई,
मुस्कराती  कलियाँ खो गई,
कर काँटों का आलिंगन,
पर्वतराज आज नग्न है खड़ा,
नदियों में पानी लाल बह रहा ,
लाल सरहदों  दुनियां बँटी,
प्रेम का कोई चिन्ह नहीं ,
मानव दानव से भिन्न नहीं,
अब आओ मेरे पालनहार ,
यह दुनिया लक्ष्य हिन् हुए,
खुद ही खुद की दुश्मन हुई |

Saturday, July 24, 2010

रास्ता

अनजान सी डगर थी वो
अनजान  ही था वो रास्ता
दिल को कसक दे गई
ऐसी है ये दास्ताँ
चाँद पूनम का था
पर लुका छुपी का खेल
शायद खेल रहा आसमां
था दर्द लिए
तो डर भी लिए 
बैठा था वो रास्ता
सहम जाये कोई भी
ऐसी है ये दास्ताँ 
टपकती तरुदल से वे बुँदे
वो मिट्टी की सोंधी खुशबू 
वो भीगी सी हवा 
खुद में नमी लिए
और  कोई कमी लिए 
बैठा था वो रास्ता
लफ्ज़ ना दे पाए
ऐसी है ये दास्ताँ
सरसराहट पत्तियों की 
आवाज़ टपकती बूंदों की
कदम छाप बड़ते क़दमों की
फिर भी एक ख़ामोशी
कोई  दर्द भरी बात लिए 
बैठा था वो रास्ता 
खो जाये कोई 
ऐसी है ये दास्ताँ
आगे  बढ़ने से पहले 
कदम ठिठकने लगे थे
कृन्दन के सुर बढने लगे थे
रुख हवा का भी अजीब था
जाने क्या राज़ लिए
बैठा था वो रास्ता 
सोचो ना इतना 
भूतों की नहीं ये दास्ताँ 
एक तेज था उस चेहरे पर
मायूसी थी आँखों में
मीठी वाणी उन होटों की
ऐसे किसी को लिए
बैठा था वो रास्ता 
नहीं नहीं दोस्तों  
प्यार  की नहीं ये दास्ताँ
सिसकियों में एक आवाज आई 
मैं सच्चाई हूँ,मैं जननी हूँ
यह विराना नहीं
सच का है यह रास्ता
कभी इससे आबाद संसार था 
आज वीरान है ये रास्ता
खुद को आबाद समझ इठलाते 
बर्बदों से जूडी ये दास्ताँ 

Friday, July 23, 2010

कोई मुझे इश्क करना सिखला दे

दर्द का दर्पण बतला दे,
साज -सरगम समझा  दे ,
बदलते हुई राहों में,
कोई मुझे इश्क करना सिखला  दे|
किसी की यादों में खोना,
जाग कर भी सपनो में होना,
हर और अक्स एक ही का पाना ,
मंजिल को भुल, राह एक ही जाना ,
मुझे उन  राहों पर खोना सिखला दे,
कोई मुझे इश्क करना सिखला दे|
जुल्फों के अम्बर के नीचे,
नैन धरा दिल की सींचे,
आँखों की गहराई में किसी की,
डूब कर जीना सीखे,
मुश्कुराहत पर किसी की,
सारी खुशियाँ लुटाना सिखला दे,
कोई मुझे इश्क करना सिखला दे|
 बोल ख़ामोशी के,भाषा बिन बोलो की,
भाव दिलों के,धुन प्रेम भावों की,
अश्क ख़ुशी के,गाथा खामोश आसूंओ की,
बिन जुबां के हमको भी दिल का हाल
सुनाना सिखला दे,
कोई मुझे इश्क करना सिखला दे|
किसी की ख़ुशी पर 
खुद को न्योछावर करना,
उन पर ख़ुशी की एक बूँद
की खातिर गमों का सागर पीना,
सुख  खोकर भी सारे 
खुश होना सिखला दे,
कोई मुझे इश्क करना सिखला दे|

Monday, June 28, 2010

ख़ुशी के सुर झूम जाना है

बहुत हुआ आज ना आंसू  बहाना है,
आज ना कोई दर्द का गीत गाना है,
लिखना ना आज किसी का गम मुझे,
आज ख़ुशी के सुर में झूम जाना है ,
ना आज कोई वीरान रह नज़र में,
ना कोई कांटें डगर में,
ना अब टूटे दिल का हाल सुनाना है,
बहुत हुआ आज ख़ुशी के सुर में,
मदमस्त हो झूम जाना है|
मित्र,साथी, दोस्त ,सखा,
अपना पराया छोटा और बड़ा,
सभी का एक सुर में कहना  है,
गम ज़िन्दगी का लिख ,
आंसू  से पन्नो को सींच ,
कलम की धार से दुनियां पर,
वार कर आखिर क्या पाना है,
बहुत हुआ आज ख़ुशी के सुर में,
मदमस्त हो झूम  जाना है,
आज पंछियों  के बसेरे,
उनके घोसलों के उन,
सुन्दर ,सुकोमल शिशुओ,
के प्रीत भरे शोर को सुन ,
उनकी और बढ़ते नाग रूपी
काल को भुल जाना है,
बहुत हुआ आज ख़ुशी के सुर में
मदमस्त हो झूम जाना है|
कल कल करती नदियों,
 साहिल के सर्पीले  मोड़ों,
हवा के उन शीतल झोंको ,
प्रकति के अपार तोहफों,
के गीत गुण गुनाते हुए ,
भूख प्यास से मरे उन कंकालों को
अब मुझे नकार जाना है|
बहुत हुआ आज ख़ुशी के सुर में,
मदमस्त हो झूम जाना है|
हसीना की जुल्फों में खोकर,
लिखूं  सोन्दर्य की निशनियाँ,
हो गीत सावन के  होठों पर,
बोलूं  तितलियों की जुबनियाँ,
छोड़ रक्त से सनी वादियाँ,
प्रेम की रित पर,
अपने मनमीत पर,
अब मुझे भी कलम चलाना है,
बहुत हुआ आज ख़ुशी के सुर में,
मदमस्त हो झूम जाना है|

 मैं शतुरमुर्ग बन लिख गीत
प्यार,सोन्दर्य के देता  हूँ |
दर्द देख मोड़ आँख लेता हूँ|
ख़ुशी के सुरों  को सुना
खुशियाँ बिखेर देता हूँ |
आज मैं भी लिख ख़ुशी के गीत
मदमस्त हो झूम  लेता हूँ

Sunday, June 27, 2010

दर्द की नीव

दर्द की आधार शिला पर,
आंसुओ की भीगी माटी से,
जोड़ गम के पत्थरों को,
सुखों का मंदिर बनता है,
जीवन में आसां कुछ नहीं,
वो सबके साथ खेलता है|
ले लोभ लालसा की ललक,
प्राय: पतित प्रोयोजन पर,
  वो मंदिर तोड़ दिया जाता है,
और नव निर्माण में फिर से,
वही दर्द,वही गम ज़िन्दगी में 
अवतरित हो जाता है,

लांछन किसी पर लगा,
दोष मढ़ किसी पर ,
खुद को दोषमुक्त समझ,
दुनियां से हर कोई खफा होता है ,
दूध के धुले है सब,
बुरा होने को बस खुदा बच जाता है|
कोई दुष्ट,कोई मतलबी,
कोई बुरा बन जाता है,
अपने दुखो की गठरी,
किसी और को दे ,
बढती राहों में तनहा
सुख भोगना चाहता है,
आसाँ राहों की खातिर सच्चा कर्तव्य,
ताक़ पर रख दिया जाता है|
कोई नहीं समझता की सुखो का मंदिर
दर्द की नीव पर ही बनता है |

Saturday, June 26, 2010

असमंजस ज़िन्दगी का

बदलते युग में हर कदम पर,
ज़िन्दगी एक सवाल से टकराती है,
ध्येय क्या है ज़िन्दगी का,
क्या राज है खुदा की खुदाई का,
क्यूँ किसी को दर्द,
किसी को रंजिशो का संसार,
तो किसी को सुख-समृद्धि,
किसी को प्रेम का उपहार दिया,
क्यूँ दर्द दे भी मुस्कुराती है, 

रह खामोश सवालों पर जिंदगी,
जाने क्या क्या सिखलाती है| 

क्या अंतर  है दर्द,और ख़ुशी की राहों में,
क्यों अंतर है अपने और परायों में ,
क्यों हर प्रेम में एक सा सोन्दर्य नहीं,
क्यूँ हर फूल माली को मनमोहक नहीं,
क्यूँ किसी शाख पर कईयों का बसेरा,
तो किसी पर वीराने का पहरा है,
क्यूँ हर शाख आशियाँ नहीं बन पाती है, 
हो खामोश इस पर भी,
जाने क्यूँ ज़िन्दगी इठलाती है|
संतों की वाणी में,
कवियों की लेखनी में ,
वृद्धो की आँखों के अनुभव में,
प्रकति के कोतुहल में,
सुना है जवाब बसा है,
पर उसे कोई समझ ना सका है,
दर्द के असीम सागर में,
क्यूँ सुख की महीन रेखा है,
क्यूँ यह धुप छाँव का खेल रचाती है, 
गम और ख़ुशी की आँख मिचोली में,
जाने क्यूँ ज़िन्दगी हमे सताती है|
सवाल है कई पर,
रह खामोश इस तरह,
जाने जिंदगी क्या सिखाती है |

Wednesday, June 23, 2010

मोहब्बत की ज़िन्दगी

कुछ ख्वाब कुछ ख्वाहिशे,
कुछ यादें कुछ रंजिशे,
कुछ दर्द  कुछ अनकहीं  बातें,
वो छलकते पैमाने,वो टूटते पैमाने,
वो प्यासी मरुभूमि,वो तपती मरुभूमि,
सबका मांझी फैसला करता है,
पर किसी की एक मुस्कराहट ही काफी है,
मांझी के कपट को छलने के लिए,
बस याद  ही काफी है ,
यह ज़िन्दगी जीने के लिए|
खुदा की खुदाई से कोई शिकवा नहीं है,
उनकी बेवफाई से भी कोई शिकायत नहीं,
 ज़िन्दगी की तो चाह  ही कब की,
हमे तो मौत की भी ख्वाहिश  नहीं,
उनकी बस एक ख़ुशी की खातिर,
गमो का सागर भी  पीते हुए, 
हर पल दुआ कर सके उनके लिए,
इतना ही काफी है,
यह जिंदगी जीने के लिए|
उनकी राहों  के कांटे सभी,
हम अपनी झोली में समेटे,  
उनको दर्द दे उन हवाओ को,
बन पर्वत खुद पर रोके, 
वे हमारे हो ना सके ,
ये कसक तो है मगर,
हम वफ़ा कर उनसे,
सारी खुशियाँ जुटा ले उनके लिए,
बस  यही  ख्वाहिश  है,
यह ज़िन्दगी जीने के लिए|

Sunday, May 9, 2010

पतझड़

गीत वासंती फूलों के ,
सावन की सोंदर्य गाथा,
हर ऋतु को सम्मान दिया,
पर पतझड़ को भूला दिया |
नग्न धरा नग्न पर्वत पहाड़,
सिर्फ ढांचा बने वृक्ष हज़ार,
उजड़े बाग-बगीचे ,फुलवारियां,
हो गई कुसुम वादियाँ वीरान,
लगे धरती जैसे कोई शमशान,
देख ये सिर्फ क्रोध आता है,
और गुण पतझड़ के हर कोई भूल जाता है|
एक अलग सोंदर्य है पतझड़ का,
सुनहरे तरुदल से सुसज्जित शाखाएं,
सुके पत्तो की चादर ओढ़ी धरा,
पवन के साथ विचरण करते,
वे छोटे छोटे सफ़ेद थोथे,
वे रूप बदलते वृक्ष और मैदान
पर इस सोंदर्य को परख ना कोई पाता है,
और हर गुण पतझड़ का भूला दिया जाता है|
धरती को उपजाऊ बनाने,
जीवन चक्र को पूरा करने,
सुन्दरता का आधार बनाने,
दूजो को सुख देने की खातिर,
कुरूपता की ओढ़नी ओढ़,
 किया पतझड़ ने सोन्दर्य बलिदान,
पर उसके त्याग पर किसका ध्यान  जाता है,
और हर गुण पतझड़ का भूला दिया जाता है| 
जीवन की राह में बढ़ते हुए,
एक पतझड़ सा मोड़ भी आता है,
जिसे बुढ़ापा कहा जाता है,
बचपन,जवानी  के सोन्दर्य से तृप्त हो,
जीवन बुढ़ापे का उपहार पाता है,
पर भूल उस पतझड़ का महत्व,
हर कोई उसे ठुकराता है,
जाने क्यों मोल पतझड़ का ना कोई समझ पाता है,
जीवन का सबसे कीमती तोहफा
इन्सान के साथ ही मौत का हो जाता है
जो ज्ञान पथप्रदर्शक हो सकता था,
तज उसे अँधेरी राह पर,
हर कोई बढ़ जाता है,
पतझड़ सिर्फ आंसू के साथ विदा पाता है,
 हर गुण पतझड़ का भूला दिया जाता है| 

Wednesday, April 28, 2010

कस्तूरी की तड़प

क्या कसूर कस्तूरी का|
विचरण जो वीरान वनों में करता|


पल एक चैन जीवनभर नहीं
अजब है  उसकी कहानी
निरपराध की तड़प है या तलब 
पर इस असंतोष की सजा है उसे पानी
बस इसीलिए हर दम आहें वो भरता 
विचरण वो वीरान वनों में करता|

विश्राम कभी लिया नहीं
राह में कभी रुका नहीं
थककर कभी डगा  नहीं
लक्ष्य कभी भुला नहीं
सफलता चाह में अनजानी  राह पर चलता
भर साहस मन में  विचरण वो वीरान वनों में करता|

जग के हर रस्ते को देख लिया
हर राज़ को जाँच लिया 
हर किसी से सलाह करी
हर किसी से अपना गम बयां किया
संग हर दम असफलता का मलाल रहता 
यही दर्द लिए विचरण वो वीरान वनों में करता|

प्रकृति का हर फूल टटोला
हर घाट का पिया पानी
मादकता जो उस गंध में
हर मदिरा उसके आगे पानी
उसी मादक स्त्रोत की खोज करता
विचरण वो वीरान वनों में करता|
वह पाने की उसने ठानी
जिसका वो खुद स्वामी
अंतर में जो झांक लेता
तो पा सत्य को वो  लेता
राज़ यह समझ कस्तूरी कैसे पाता
मानुष ही नहीं जिसे समझ अब तक सका

शायद यही कसूर कस्तूरी का
विचरण जो वीरान वनों में करता|

Wednesday, April 14, 2010

निजात

इस ज़ख्म की दवा  ना कर,
और दर्द की दुआ कर ले
इन घावो के भरने का नहीं
गहरे होने का उपाय कर दे
इस नासूर की कसक भुलाने को
ऐ ज़िन्दगी मौत का तोहफा दे दे
ना किसी का साथ ना सांत्वना
रंग बिरंगा माहौल  नहीं 
ना खुशियों की सौगात चाहता हूँ
ऐ बेवफा ज़िन्दगी,
मैं तुझसे निजात चाहता हूँ
गए नैन भुल आँसुओं  का रस,
विचलित नहीं करता दर्द भी कमबख्त,
श्वास में प्राणों का संचार नहीं,
इस निरह जीवन का कोई सार नहीं,
मेरे लक्ष्यहीन सफ़र को अब विराम दे दे,
ऐ ज़िन्दगी मौत का तोहफा दे दे |
हर कदम पर स्वार्थ से सने,
दानवो से बदतर मानव खड़े है,
इंसानियत की समाधि पर,
खुद ब्रह्मा  भी रो पड़े है,
इस पाखंडी दुनियां को छोड़,
जा सत्य की धरा पर,
शिव से तांडव की गुहार करना चाहता हूँ ,
ऐ ज़िन्दगी में तुझसे निजात चाहता हूँ| 

इश्क

बन अश्क आँखों से लहू बहा करता है,
तो कभी रोम रोम मुस्कुरा उठता है,
जाने कैसा भी मंज़र हो,
दिल तुम ही  से वफ़ा करता है,
जब ख्याल खुदा का आता है,
जहन में तेरा ही अक्स उभरता है,
हैरत में हूँ मैं भी,
पर शायद यही इश्क हुआ करता है,
नफा नुकसान का ना हिसाब रखता है,
कसमो वादों से तौबा यह करता है,
किसी  डोर से बंधा लगता है,
पर जाने यह बंधन क्यों सुहाना लगता है,
दर्द देता है फिर भी 
प्यारा यह फ़साना लगता है,
हैरत में हूँ मैं भी 
पर शायद यही इश्क हुआ करता है|
सोच थम जाती है,
सिर्फ एक रटन लग जाती है,
कंकरों से बनी माला भी,
रत्नों से अधिक भाती है,
नफरत,द्वेष,ईर्ष्या सी बातें,
जहन में आ ही नहीं पाती है,
बातें है कई पर समय कम पड़ जाता है,
अक्सर खुद ही को वक्ता 
खुद ही को श्रोता बनाना पड़ता है
हैरत में हूँ मैं भी
पर शायद यही इश्क हुआ करता है|

Tuesday, April 6, 2010

साथ

क्यूँ यूँ खफा है ज़िन्दगी,
चंद लम्हों का ही तो साथ है,
क्या रूठना ओर मानना,
कुछ पल की ही तो बात है,
सफ़र हंसी हो या गम से भरा,
अब यह अपने ही तो हाथ है,
क्यूँ शिकवा शिकायत करे,
क्या जंग से होना प्राप्त है,
क्या हिसाब मुस्कराहट,
और आंसुओ  का रखना
चंद लम्हों का तो साथ है


जीत-हार,सुख-दुःख,
पाना-खोना,मिलना-बिछड़ना,
इन सबका ना कोई सार है,
हर लम्हे में जीवन का पान कर लूं,
वरना जाने क्या उस पार है,
कल के लिए क्यूँ व्यथित हो,
जब आज में ही जीवन का सार है,
क्यूँ खफा है तु ज़िन्दगी,
चंद लम्हों का तो  साथ है

किसका घमंड कैसा अहम,
कैसा पुण्य क्या धरम,
व्यर्थ की विधाए है,
व्यर्थ  की ये बात है,
प्रेम की वाणी बोलो ,
प्रेम ही हर ज़ख्म का इलाज है,
दूजो का दर्द देख,
अश्रुधरा से जो भूमि भीगी,
वही सबसे ऊँचा मंदिर,
सबसे बड़ी मजार है,
क्यूँ खफा है ज़िन्दगी,
चंद लम्हों का ही तो साथ है|

Monday, March 29, 2010

तुमको आना होगा

सरस,स्वच्छ,शांत,सरिता,
जहाँ बहा करती थी,
उसके शीतल,चंचल जल में,
लहूँ कि ललाई उभरने लगी,
फूलों से लड़ी फूलवारियाँ,
अंगारों  से भरने लगी,
मधुर संगीत से भरी वादियाँ,
धमाकों से दहकने लगी,
बहता लहु अब तो हिस्सा
रोजमर्रा की ज़िन्दगी का बनने लगा,
करह,क्रंदन,कसक ने कब से
विचलित करना छोड़ दिया
प्रेम,इंसानियत,करूणा कल्पना लगने लगे
मासूम बच्चे गुड्डे गुड़ियाँ छोड़,
बंदूख,तलवार,तोपों से खेलने लगे,
खरगोश,हिरन की बतियाँ भूल ,
बाघ,लोमड का गाथा गान करने लगे,
बदलते इस चमन में खोई इंसानियत,
लडखडाती अहिंसा संबल चाहती है,
अब बुद्ध,महावीर की याद आती है,
दधिची से त्याग की ज़रुरत सताती है,
धरा के उद्दार की खातिर
तुम्हे अवतरित होना होगा,
हे शिव फिर तुमको अब,
द्वेष से भरा हलाहल पीना होगा|
है आसां बैरी को मुहतोड़ जवाब देना,
जंग में उसे मात देना,
पर यहाँ कूटनीति राजनीती,
यहाँ तक युद्ध कौशल भी विफल हुआ,
सामना जब बैरी से हुआ तो,
 देख उसे बड़ा ही हैरत हुआ,
रणभूमि में दोनों ओर अपने ही थे,
गीता के ज्ञान में यह धर्म युद्ध है,
हम तो पार्थ बनने को तत्पर है,
पर कहाँ सारथी हमारे श्री कृष्ण है,
हे दुनिया की रचना करने वाले
फिर तुम्हे अब रथ चलाना होगा
नाश करने को अराजकता का
पंचजन्या में श्वास फुकना होगा
तुमको अवतरित होना होगा
है गद्दार हमारे  खेवैया ही,
पतवार कहाँ से पार लगे,
लूट खसोट जिनके जीवन,
के है सुसंस्कार बने,
सेना नायक ही हमारे,
दुश्मनों के दास बने,
निज स्वार्थ की खातिर,
देश को है बाँट चुके,
एक ही माँ की दो संतानों को,
चिर शत्रुता के बंधन में बांध चुके,
घाव किसी को भी लगे,
दर्द माँ को होता है,
पार माँ की सिसकियाँ कहाँ ,
यह अमानव जान सके,
इन स्वार्थ सिद्धि से सने,
तख़्त-ताज के लोभियों को,
सच्चाई के दर्पण में इनका,
कलुषित,दानवरूप दिखना होगा,
हे राम तुमको फिर इस धरा,
नव आदर्श स्थापित करना होगा,
जन कल्याण की खातिर 
तुम्हे अवतरित होना होगा|

Wednesday, March 24, 2010

मंजिल

पुछ ना तू खुदा से,
क्यूँ पा मंज़िल  भी तु मंजिल से दूर खड़ा है,
क्योंकि ज़वाब तेरे सफ़र में छुपा है,
राहों में दूजों कि कांटे बिछा ,
लक्ष्य कि ओर बढ़ता गया ,
खुद राहों के कष्टों को सहते हुए,
अकेला मंज़िल के निकल होता गया,
साथी,दोस्त,हमदर्द डर काटों से
अलग-अलग  राहों पर बढ़ चले
कुछ घायल  हो राहों में पड़े 
ऐसी बेखुदी थी ,ऐसा जुनून था जीत का
कि हमराहीयों  को दूर होते ना देख सके
अब तो साया भी साथ छोड़ चूका है,
पुछ ना तु खुदा से
क्यों मंज़िल पा,तु मंज़िल से दूर खड़ा है|

देख घोर से ऐ पगले अब भी
 मंज़िल पर कदम तेरा ना पड़ा
मंज़िल के निकट है फिर भी
तु बस अकेला तनहा खड़ा
मंज़िल पा क्या पाएगा तु
जीवनरस तो तु खो चूका है
जोश,जूनून,जिद में आ
ख़ुशी के मायने भुल चूका है,
जाम जश्न  औ  जीत का,
जहन्नुम के विष सा प्रतीत होगा
था एक इंसा तु सफ़र कि शुरुआत में
पर अंत में जिंदा लाश बन चूका है|
पुछ ना तु खुदा से
क्यों मंज़िल पा,तु मंज़िल से दूर खड़ा है|

सच में मंज़िल तभी मंजिल है
अगर राह को फूलों से भर दो,
मंज़िल पर मौजूद वीराने को,
अपने काँरवा से आबाद कर दो,
सह गम स्वयं,राह को इतना सुगम कर दो,
 कि उस राह पर चल अपने,
तुम्हारे निकट आ सके,
जीत कि ख़ुशी तेरे संग बाँट सके,
तभी मंज़िल पा सकते है,
वरना मंज़िल हमेशा एक कदम दूर रहेगी,
कितना पास चले जाओ,
मंज़िल ना तुमको मिलेगी,
पुछ ना तु खुदा से,
क्यों मंज़िल पा भी तु मंज़िल से दूर खड़ा है|

Tuesday, March 23, 2010

शहीद

हँसते हँसते जिन्होंने यम-पाश गले लगा लिया,
हो खुद खामोश जिन्होंने इन्कलाब को सुर दिया,
जननी जन्म दे जिनको धन्य हुई,
जिनकी कर्म भूमि तीर्थ  हुई,
समय उनकी कुर्बानी कि छाप क्या मिटा पायेगा ,
बुलंदियों को छू जब वतन इठलाएगा,
अम्बर से ऊँचा जब तिरंगा लहराएगा,
तब भी खुदा कि इबादत करने को,
उनकी शहादत का नगमा पढ़ा जायेगा |

 घर घर में दादी नानी
गाथा गान करते नहीं थकती है,
सूर्य से अधिक तेज प्रताप, 
अम्बर से ऊँचा है मान,
स्मरण मात्र से सर फ़क्र से उठ जाता है,
खुद खुदा शीश नवाने समाधि पर आता है,
ऐसे वीरो की मातृभूमि पर,
जब कोई निराधम आँख उठाएगा,
ले नाम उनका बच्चा बच्चा
देश कि खातिर लड़ जायेगा|

Thursday, February 25, 2010

युद्ध-जीवन

अविरल बहते युग में
काल चक्र से परे
शास्त्र आलाप में
मैंनेभाव विहीन गरल को पीकर देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
कल ही आँगन में गूंजी थी एक किलकारी
बतिया थी बड़ी भोलीभली 
इस लोक से परे परीलोक में जीता था
माँ के आँचल को वो अटूट ढाल समझता
उस मासूम बालक को मैंने
जंग में लोहा लेते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
परिपक्व होते बाजुओ को
दादी के हाथो की लाठी
पिता की बाज़ार की चिंता
बहन के खेलो का साथी 
घर की हर छोटी बड़ी बात में
उसे सयाना होते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
पिता के कारोबारी साथ
माँ की आँखों के ख्वाब
बहन की मासूम लालसा
दादी नानी की हर आशा
इन्ही इच्छाओ  को पुरा करने में
उसे ख़ुद के सपनो से दूर होते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
मस्तिष्क में सवाल जटिल
मन में अनदेखा आक्रोश 
आंखों में अनजानी मंजिल
चेहरे पर अनजाना क्रोध , 
उसे मैंने ख़ुद में ही उलझे देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
बिखरे सपनो को चुनते हुए
उनसे आशियाना बुनते हुए
खोये हुए किसी सपने में
उसके लक्ष्य हीन कदमो को
अब एक दिशा में चलते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
हर सवाल को जवाब बनते
हर सपने को यथार्थ में पलते
अनजानी राहो सी आते
उस सुरमई आलाप पर
बावले मन को मचलते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
हर प्रेमग्रंथ के सार को
प्रेमावीना के हर तार को
मयूर के सावन नाच को
बसंत में भंवर व्यवहार को
एक ही दीदार में समझते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
प्रेयसी दर्शन को व्याकुल मन
जैसे बिन वर्षा सावन
अधीरता छुपाने की खातिर
मन बहलाने की चाह में
उसे कलियों से बतियाते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
प्रेम गीत की  मधुर ताल में,
प्रेम सरोते के साहिल पर
प्रेमी युगल हंस जोड़े का
प्रेम रस से अभिषेक होते देख
ऋतुराज को मदमस्त होते देखा हैं
 मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
नव चिंतन की भाषा से
जग के चिंतन को त्याग कर
प्रेम साहिल पर प्रेम वट की छाँव में
वासंती कलम से प्रेम रंग में
प्रेम काव्य को गढ़ते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
जीवन की क्रीडा स्थली पर
समय बड़ा बलवान हैं
स्थिर रहता कुछ भी नही
अविरल गति ही ईश्वरीय प्रावधान हैं
उसी गति में उसे बहते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
खो वासंती बांसुरी के स्वर
निर्मम युद्ध के शंखनाद में
था हर वीर लड़ने को तत्पर
वीरगति पाने की आस में
उन्ही वीरो की धमनियों में
खौलते लावे को बहते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
देश प्रेम का अप्रस्फुटित बीज
उस निश्चल ह्रदय में था दबा
युवा ह्रदय के उस बीज को 
मातृभूमि की व्यथित पुकार
शत्रु की लोभी ललकार सुन,
वट वृक्ष में पनपते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
यौवन के भरपूर जोश में
रंजिश के अंध आक्रोश में
कुछ कर गुजरने की चाह लिए,
एक काँटों भरी राह पर चल
उसे सेनानी बनते देखा हैं
मैंने युद्ध को जीते देखा हैं
माँ  का  दुलारा  लाल  जिसे
छूने से पहेले पवन भी 
माँ के आँचल से पूछा करती थी 
उसी लाल कि काया को पसीने, 
और मिट्टी  से  लथपथ  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है 
मेहनत  से  दूर जीवन जिसका 
बिता  बड़े राजसी  ठाठ  से
उसे  हरदिन श्रम की थकान से 
ज़मीन  पर  गहरी  नींद  में 
पसीने  कि  कीमत  समझते  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है 
समय  बहुत  ही  तेज  है 
परिवर्तन  भी  देते  यही  संकेत  है 
समय  कि  इसी  धरा  के  संग 
उसकी  फूल  सी  काया  को  पत्थर 
ह्रदय   को  चट्टान  में  बदलते  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है|
माटी का चन्दन कर,
सीने में वायु भर कर,
मुश्किल कर्म को साधने ,
असंभव को संभव में बदलने,
की खातिर प्रकृति से लड़ते देखा है 
मैंने युद्ध को जीते देखा है|
शत्रु संहार की शक्ति,
शहादत करने का साहस,
स्वयं में समाहित कर, 
भय को भी भयभीत करने,
उसे खुद अग्नि बदलते देखा है 
मैंने युद्ध को जीते देखा है |

ख़ुशी  और  उत्साह  चरम  पर 
व्याकुल  सबका  अंतर 
आँखों  में  गर्व  और  आंसू   लिए 
उसके  अपनों  को  उसका 
इंतज़ार   करते  देखा  है 
मैंने  युद्ध  को  जीते  देखा  है 
............................................
............................................

सुख -दुःख ,धुप-छाँव |
है यह सतत बदलाव
भोग  चूका इतिहास सभी
शांति और जंग के प्रभाव
मगर आज फिर सरहद पर
चिंगारी को उठते  देखा है
मैंने युद्ध को जीते देखा है|
मातृभूमि  की सुरक्षा को
वीरगति की अभिलाषा को
आँखों में प्रचंड क्रोधाग्नि
माथे पर बाँधे कफ़न
वीर जवानो को मैंने
सरहद की ओर बढते देखा है
मैंने युद्ध को जीते देखा है|
जंग सिर्फ रक्त चाहती है 
धारा अपने लाल खोती है
जीत-हार की परिभाषा
बस किताबो में सयानी है |
मैंने नरसंहार में सहस्त्र
घावों को लगते देखा है
मैंने युद्ध को जीते देखा है|

Monday, February 22, 2010

नयी डगर

कर्तव्यपथ पर चलते हुए,
खो गया कहीं मेरा अंतर,
दूजो कि ज़िन्दगी जीते हुए,
अब खुद को पहचानना हुआ असंभव ,
बढती वेदना है,बढ रहे है सवाल ,
मुस्कराहट भी अंतर्मन तक पहुच न पाती है,
सुन्दर तितलियाँ भी ना मन को लुभाती है 
सुरमयी आलाप भी बरबस शोर लगता है, 
सुन्दर कुसुमो से लदा उपवन है, 
वीरान मरुतल ही लगता है ,
बेगानी सी यह पवन है, 
बेगाना है यह समाँ,


बढती यह बैचेनी ,
बढता यह असमंज़स है,
खुद ही खुद में उलझा हूँ,
और ज़माने को सिख देता हूँ,
जीवन गुर बतलाता हूँ,


सब समझ ज़माने कि होते हुए भी
नासमझ ही खुद को पाता हूँ,
सत्य कि परिभाषा से अवगत हूँ,
पर जाने क्या सत्य क्या रचना है ,
क्या माया क्या सपना है ,

क्यूँ कोई पराया ,
जाने क्यूँ कोई अपना है ,
क्यूँ है यह रिश्ते ,
क्यूँ बंधीशो से जग बंधा है ,
समझ ना मैं पाता हूँ
चहुँ ओर के अन्धकार को,
समझ कैसे सकता हूँ,
जब अँधियारा भीतर भी भरा है, 
मुझे वह अंधकार पढना है ,
खुद ही खुद से लड़ना है ,
हर उलझन को सुलझाना है, 
अब अंतर -तिमिर मिटा ,
दशों दिशा में आत्म -अलोक फैलाना है,


किसी नयी डगर मुझे जाना है,
किसी नयी डगर मुझे जाना है ......

Saturday, February 20, 2010

जंग या जीवन

जंग   है किसे  प्यारी
पर सत्य है यह भी अडिग
कि है  जंग मानुष कि जिंदगी सारी
जीवन  की  राहों   में
जाने-अनजाने  ही सही
कई  जंग  हम लड़  जाते  है
कुछ  जीत  कर  शोक मनाते
कुछ  हारकर  भी मुस्कुराते  है
जीत मानव का ध्येय नहीं
जंग मानव का आभूषण है
जीत में वो रस नहीं
जो जंगी संघर्ष में है
मज़ा अंत में नहीं
आनंद तो नव आरंभ में है
सफ़र में जोश है जूनून है
मंजिल पर बस शांत सन्नाटा है
मौत मंजिल है, जीवन है सफ़र
याद सफ़र को करते है
दाद सफ़र को मिलती है
मौत अंत है सफ़र का
गाथाएँ लक्ष्य प्राप्ति पर
सुख-रसपान की सब बेमानी है
जियो सफ़र के हर पल को,
मंजिल से क्यों डरना,
जहाँ साथ छोड़ दे नश्वर,
उसी को मंजिल समझना,
बंधन जीत का त्याग,
नभ में विचरण का विचार करो,
अपना चपल चंचल मनोरथ,
मुश्कुराहत के साथ पूर्ण करो,
हर डग पर छेडो राग ऐसा,
की धरा में वो घुल जाये,
बने नश्वर इश्वर डगर पर,
और इश्वर नतमस्तक हो जाये|............

Monday, February 8, 2010

किशोर के दिल का हाल

बसंत  कई  बीत  गए
हम  तो  बिना  अपने  मीत रहे
खुदा  ने  सबका साथी   बनाया  है
पर  जाने  कहाँ   छुपाया  है
अब  तो  दुआ  है  यही
जल्दी  किसी  से  दिल  कि  प्रीत  बने
हमारा  अफसाना  भी  अब  प्रेमगीत  बने

सावन में मयूर के नाच से
कोयल कि मधुर कुक से 
भंवरे के कली कोतुहल से  
हिरन जोड़े स्वछंद विचरण से 
प्रेम भरे इस मौसम  में
कैसे अब शांत चित्त रहे
दुआ है यही की
हमारा अफसाना भी अब प्रेमगीत बने

पूर्णिमा के पूरण चंद की शीतल किरणे
अन्धयारी अमावस में तारों की अदभूत चमक
प्रथम प्रहर की वो शीतल पवन
ओस का वो तरुदल चुम्बन
देख यह नींद से अद्खुली आँखे
मनमीत की ही राह तके
दुआ है अब यही
हमारा  अफसाना भी अब प्रेमगीत बने

तन्हाई चुभती नहीं,
सच कहे तो तनहा है भी नहीं ,
यार दोस्तों का दामन थामे,
ज़िन्दगी सिर्फ कट ही रही
बिन साथी के दिख ना  कोई मंजिल रही
 अब साथ हम-दम का हो
और कोई ज़ीने की जिद मिले
दुआ है बस यही
हमारा अफसाना भी अब प्रेमगीत बने

Tuesday, January 26, 2010

सवाल तुझसे है ज़िन्दगी

लगता है पराया ज़माना हो गया है,
दर्द अपना बंटाना चाहता नहीं,
अब जाने कौनसी राह ले चूका हूँ
ऐ ज़िन्दगी तुझसे मैं अपने दिल का हाल कहता हूँ
आँखों में आंसू छलक पड़े,
दर्द दिल का हम किससे कहे,
ज़ख्म किसे हम दिखलाये,
जो हम-दम था हमराही था ,
जिसे जीवन का लक्ष्य बनाया था ,
उसी ने घाव दिए है ,
रहती  थी सदा मुस्कान जिन लबों पर,
उन पर  गम के फसाने  आ गए  ,
ज़माने को बदलने का जुनून,
ज़मीं को आकाश से जोड़ने सी  चाह ,
सब आईने कि तरह चूर-चूर हो गए
स्वछंद पवन के साथ खेलने वाला
हर वक़्त वासंती मस्ती में रहेने  वाला
जीवन का तात्पर्य ढूंढ़ता  हूँ
जाने क्यूँ अंधियारी गलियों में
अपनी ज़िन्दगी ढूंढ़ता हूँ
तन्हाई  से अब याराना है,
..................................
यह ना कहना अधुरा जाम पिला दीया
बस मैंने तो हाल दिल का बयां किया
पूरी कभी कोई रचना होती नहीं
यारों यह दास्ताँ अभी अधूरी ही सही
:)

थोड़ी देश भक्ति :)

लहू देकर वीरों ने हमे यह शांत चमन दीया,
कुछ लालचियों ने इसे इर्ष्या द्वेष से भर दीया
शहादत उन वीरों कि यूँ ना बेकार होगी
वादा है माँ तुझसे फिर
तेरे आंचल में गोलियों के धमाके नहीं
प्रेम गीतों कि बहार होगी
प्रेम सारंगी कि झंकार होगी
...............................

Sunday, January 24, 2010

जीवन की उस राह पर जहाँ में टूट सा गया था :)

हर  राह  पर  ठोकर  खाई ,
हर किसी ने फरेब कर ,
 घाव कई पीठ  पर दिए ,
टुकड़े लाखों दिल के किए,
हो गए बेगाने जो अपने थे,
तोड़ दिए ख्वाब  जो संजोये हमने थे,
ज़िन्दगी बोझ सी बन गई
ज़ीने की कोई वजह  नज़र नहीं आती 
तब दूर  अंधियारे आकाश से 
एक रोशनी जीने की आस दे गई
जैसे पतझड़ में  खड़े लाचार  वृक्ष को 
बसंती हवा नव जीवन  दे गई,
जैसे ग्रीष्म से प्यासी धरा को,
सावनी घटाएँ तृप्ति दे गई,
समझ अनजानी सी आ गई,
ज़िन्दगी की पहेली वो सुलझा गई,
कभी  लगता है खुद मेरी तकदीर ,
वो रूप ले मुझे सिख दे गई,
तोह कभी खुदरत का करिश्मा लगता है,
पर मुझे एक नयी ज़िन्दगी दे गई 
....................................
कभी  ख़त्म  होती नहीं दिल की उलझने  
हर लम्हा खुद में एक उलझन
जो इंसा उलझन से डर गया 
जीवन उसने क्या जीया 
समझ खुद को पाया नहीं
अपनी क्षमता   को उसने  पहचना   नहीं,