बन अश्क आँखों से लहू बहा करता है,
तो कभी रोम रोम मुस्कुरा उठता है,
जाने कैसा भी मंज़र हो,
दिल तुम ही से वफ़ा करता है,
जब ख्याल खुदा का आता है,
जहन में तेरा ही अक्स उभरता है,
हैरत में हूँ मैं भी,
पर शायद यही इश्क हुआ करता है,
तो कभी रोम रोम मुस्कुरा उठता है,
जाने कैसा भी मंज़र हो,
दिल तुम ही से वफ़ा करता है,
जब ख्याल खुदा का आता है,
जहन में तेरा ही अक्स उभरता है,
हैरत में हूँ मैं भी,
पर शायद यही इश्क हुआ करता है,
नफा नुकसान का ना हिसाब रखता है,
कसमो वादों से तौबा यह करता है,
किसी डोर से बंधा लगता है,
पर जाने यह बंधन क्यों सुहाना लगता है,
दर्द देता है फिर भी
प्यारा यह फ़साना लगता है,
हैरत में हूँ मैं भी
पर शायद यही इश्क हुआ करता है|
सोच थम जाती है,
सिर्फ एक रटन लग जाती है,
कंकरों से बनी माला भी,
रत्नों से अधिक भाती है,
नफरत,द्वेष,ईर्ष्या सी बातें,
जहन में आ ही नहीं पाती है,
बातें है कई पर समय कम पड़ जाता है,
अक्सर खुद ही को वक्ता
खुद ही को श्रोता बनाना पड़ता है
हैरत में हूँ मैं भी
पर शायद यही इश्क हुआ करता है|
waah bhai rajpal chha gye yar....awesome poem !!
ReplyDeleteDil ka haal panno mein likh diya hai..