Wednesday, March 24, 2010

मंजिल

पुछ ना तू खुदा से,
क्यूँ पा मंज़िल  भी तु मंजिल से दूर खड़ा है,
क्योंकि ज़वाब तेरे सफ़र में छुपा है,
राहों में दूजों कि कांटे बिछा ,
लक्ष्य कि ओर बढ़ता गया ,
खुद राहों के कष्टों को सहते हुए,
अकेला मंज़िल के निकल होता गया,
साथी,दोस्त,हमदर्द डर काटों से
अलग-अलग  राहों पर बढ़ चले
कुछ घायल  हो राहों में पड़े 
ऐसी बेखुदी थी ,ऐसा जुनून था जीत का
कि हमराहीयों  को दूर होते ना देख सके
अब तो साया भी साथ छोड़ चूका है,
पुछ ना तु खुदा से
क्यों मंज़िल पा,तु मंज़िल से दूर खड़ा है|

देख घोर से ऐ पगले अब भी
 मंज़िल पर कदम तेरा ना पड़ा
मंज़िल के निकट है फिर भी
तु बस अकेला तनहा खड़ा
मंज़िल पा क्या पाएगा तु
जीवनरस तो तु खो चूका है
जोश,जूनून,जिद में आ
ख़ुशी के मायने भुल चूका है,
जाम जश्न  औ  जीत का,
जहन्नुम के विष सा प्रतीत होगा
था एक इंसा तु सफ़र कि शुरुआत में
पर अंत में जिंदा लाश बन चूका है|
पुछ ना तु खुदा से
क्यों मंज़िल पा,तु मंज़िल से दूर खड़ा है|

सच में मंज़िल तभी मंजिल है
अगर राह को फूलों से भर दो,
मंज़िल पर मौजूद वीराने को,
अपने काँरवा से आबाद कर दो,
सह गम स्वयं,राह को इतना सुगम कर दो,
 कि उस राह पर चल अपने,
तुम्हारे निकट आ सके,
जीत कि ख़ुशी तेरे संग बाँट सके,
तभी मंज़िल पा सकते है,
वरना मंज़िल हमेशा एक कदम दूर रहेगी,
कितना पास चले जाओ,
मंज़िल ना तुमको मिलेगी,
पुछ ना तु खुदा से,
क्यों मंज़िल पा भी तु मंज़िल से दूर खड़ा है|

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