आज वो चेहरा ज़हन में आ गया,
मेरे मुश्कुराते चेहरे से हंसी ले गया,
मन मुझसे आज पूछता है,
क्यूँ तू इतना इठलाता है,
अपनी कामयाबी के ऊपर,
क्या चूका पाया तू अब तक,
उस एक ग्लास पानी की कीमत,
क्या है आज तुझमे वो साहस,
पूरी कर सके उसकी ज़रूरत,
उस याद के आते ही अब,
खुशियों के संसार में घायल खड़ा हूँ,
तब भी लाचार था अब भी लाचार खड़ा हूँ|
आप मेरी इस कविता का मर्म तभी समझ पाएंगे जब मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाऊंगा| असल में यह कोई कहानी नहीं है| मेरे बचपन की एक याद है| गर्मीयों के दिन थे| चंद दिनों में गर्मी की छुटियाँ होने वाली थी| मेरे स्कूल के बहार एक चबूतरे पर एक बूढी माई अपने 3-4 मटको में पानी भरकर बैठती थी| कभी पुछा तो नहीं पर उनकी उम्र कम से कम 80 बरस तो ज़रूर रही होगी| हम बच्चो की छुट्टी होने पर वो हमे पानी पिलाया करती थी| हम बच्चे भी उस ठन्डे पानी का मज़ा नहीं छोड़ सकते थे| कभी कभी हम बच्चे उन्हें 1-2 रुपये भी दे दिया करते थे , चूँकि अकाल के समय उस गर्मी में पानी की कीमत सच में होती है और बालमन भी यह समझता है|
एक दिन ऐसे ही मेरी अधिक बोलने की आदत के कारण मैंने उनसे पुछा -" काकी आप रोज पानी लेकर क्यूँ आती हो " तब उनका जवाब था -"बेटा मेरे खाने-पीने के लिए धान, दाल तो मेरे भाई के घर से आ जाता है, मगर मेरा तेरी उम्र का एक पोता है और वो मेरे घर इसीलिए नहीं आता क्यूंकि मैं उसे दूध में बोर्नवीटा नहीं दे सकती| तो मैं तुम्हारे दिए पैसो से बोर्नवीटा खरीदना चाहती हूँ"|
असल में बात यह थी की उस बूढी औरत का बेटा अच्छी नोकरी करता था| उस सुपुत्र को अपनी माँ से और उसकी गरीबी से नफरत हो गयी थी और उसने उन्हें त्याग दिया था| और उसके पोते को इस तरह बहलाया जाता था की दादी के घर पर बोर्नवीटा नहीं मिलेगा| वो औरत बच्चो के चेहरे पर खुशी देखने की ख्वाहिश में अपने पोते के स्कूल के सामने भरी दोपहरी में लोगो को पानी पिलाती थी| असल बात मुझे उस बूढी माई की मौत के वक्त पता चली,चूँकि इत्तेफाक से उनका पोता हमारी चंडाल मंडली (मोहल्ले के बच्चो का समूह) का सदस्य था|
खुदगर्जी से भरे इस ज़माने में,
अगर किसी मोड पर उन लाचार,
हाथो को संबल देना चाहता हूँ ,
ज़माना आतंकियों को कोसता है,
मैं उस ज़माने से प्रश्न करता हूँ,
तुम्हारे कानून में है आतंकी को,
सजा बहुत ही बड़ी बड़ी ,
क्योंकि ठग लिया लाखो में से,
धरा के एक लाल ने उसको,
कौन है बड़ा मुजरिम बतलाओ,
चढाओ फांसी आतंकी को,
ताकि अगले जनम वो दगा ना करे,
मगर सजा कुपुतो को ऐसी हो,
के फिर आ किसी की कोख में,
कोख को कलंकित ना करे
सार्थक जीवन मेरा होगा तभी
जब कुछ ऐसा कर सकू
की कोई माँ कुपुत ना जने|
मेरे मुश्कुराते चेहरे से हंसी ले गया,
मन मुझसे आज पूछता है,
क्यूँ तू इतना इठलाता है,
अपनी कामयाबी के ऊपर,
क्या चूका पाया तू अब तक,
उस एक ग्लास पानी की कीमत,
क्या है आज तुझमे वो साहस,
पूरी कर सके उसकी ज़रूरत,
उस याद के आते ही अब,
खुशियों के संसार में घायल खड़ा हूँ,
तब भी लाचार था अब भी लाचार खड़ा हूँ|
आप मेरी इस कविता का मर्म तभी समझ पाएंगे जब मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाऊंगा| असल में यह कोई कहानी नहीं है| मेरे बचपन की एक याद है| गर्मीयों के दिन थे| चंद दिनों में गर्मी की छुटियाँ होने वाली थी| मेरे स्कूल के बहार एक चबूतरे पर एक बूढी माई अपने 3-4 मटको में पानी भरकर बैठती थी| कभी पुछा तो नहीं पर उनकी उम्र कम से कम 80 बरस तो ज़रूर रही होगी| हम बच्चो की छुट्टी होने पर वो हमे पानी पिलाया करती थी| हम बच्चे भी उस ठन्डे पानी का मज़ा नहीं छोड़ सकते थे| कभी कभी हम बच्चे उन्हें 1-2 रुपये भी दे दिया करते थे , चूँकि अकाल के समय उस गर्मी में पानी की कीमत सच में होती है और बालमन भी यह समझता है|
एक दिन ऐसे ही मेरी अधिक बोलने की आदत के कारण मैंने उनसे पुछा -" काकी आप रोज पानी लेकर क्यूँ आती हो " तब उनका जवाब था -"बेटा मेरे खाने-पीने के लिए धान, दाल तो मेरे भाई के घर से आ जाता है, मगर मेरा तेरी उम्र का एक पोता है और वो मेरे घर इसीलिए नहीं आता क्यूंकि मैं उसे दूध में बोर्नवीटा नहीं दे सकती| तो मैं तुम्हारे दिए पैसो से बोर्नवीटा खरीदना चाहती हूँ"|
असल में बात यह थी की उस बूढी औरत का बेटा अच्छी नोकरी करता था| उस सुपुत्र को अपनी माँ से और उसकी गरीबी से नफरत हो गयी थी और उसने उन्हें त्याग दिया था| और उसके पोते को इस तरह बहलाया जाता था की दादी के घर पर बोर्नवीटा नहीं मिलेगा| वो औरत बच्चो के चेहरे पर खुशी देखने की ख्वाहिश में अपने पोते के स्कूल के सामने भरी दोपहरी में लोगो को पानी पिलाती थी| असल बात मुझे उस बूढी माई की मौत के वक्त पता चली,चूँकि इत्तेफाक से उनका पोता हमारी चंडाल मंडली (मोहल्ले के बच्चो का समूह) का सदस्य था|
खुदगर्जी से भरे इस ज़माने में,
अगर किसी मोड पर उन लाचार,
हाथो को संबल देना चाहता हूँ ,
ज़माना आतंकियों को कोसता है,
मैं उस ज़माने से प्रश्न करता हूँ,
तुम्हारे कानून में है आतंकी को,
सजा बहुत ही बड़ी बड़ी ,
क्योंकि ठग लिया लाखो में से,
धरा के एक लाल ने उसको,
कौन है बड़ा मुजरिम बतलाओ,
चढाओ फांसी आतंकी को,
ताकि अगले जनम वो दगा ना करे,
मगर सजा कुपुतो को ऐसी हो,
के फिर आ किसी की कोख में,
कोख को कलंकित ना करे
सार्थक जीवन मेरा होगा तभी
जब कुछ ऐसा कर सकू
की कोई माँ कुपुत ना जने|
उफ़ अखिलेश जी बिल्कुल सही कहा आज मैने भी ऐसी ही कविता लगाई है इसी दर्द को सहेजा है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति |
ReplyDeleteकोई माँ कुपुत ना जने| बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति|
ReplyDeletebahut khubsurat w prabhawshali .. pyari si rachna...
ReplyDeleteprabhawshali prastuti
ReplyDeleteबचपन की बातें ज़हन में बहुत गहरा असर डालतीं हैं .... बहुत प्रभावशाली पोस्ट ...
ReplyDeleteअति सुन्दर पोस्ट !
ReplyDeleteअति सुन्दर पोस्ट !
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