Friday, January 8, 2016

विकसित संसार

कभी सोचता हूँ क्या पाया है,
ज़माने ने विकास के नाम पर,
जो जीवन रत्न थे सब खो गए,
बर्बर मानव से अब पशु हो गए,
पाषण को जीवित से अधिक महत,
यत्न था जीवन सरल और सुखद हो,
मगर जीवन को ही हम भूल गए,
जो साधन था वो लक्ष्य हुआ,
और लक्ष्य को इंधन समझ रहे,
जल रही है चिता मानव की ,
अब तो चिंता की वेदी पर,
जाने खोकर सब कुछ अपना,
वीराने मेलो में जाने क्या खोज रहे,
लगता तो बस है यही की अब,
विकास के नाम पर विनाश कर रहे|

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